Thursday, June 30, 2011

बुरे आदमी की अच्छी दास्तान



जीवन का रंगमंच (जीवनी) - अमरीश पुरी
सह लेखिका- ज्योति सभरवाल। अनुवाद -नीरू

वाणी प्रकाशन नई दिल्ली - 2 मूल्य-495 रूपये



‘‘बड़े-बड़े सुखों की इच्छा जाने कब से मैंने छोड़ दी है

कभी उन्हें जमा करने के लिए इक गागर लाया था

मैंने अब फोड़ दी है’’

भवानी प्रसाद मिश्र की कविता से जब अमरीश पुरी अपने जीवन का सार अभिव्यक्त करते हैं तो स्पष्ट लगता है हिन्दी सिनेमा के इस सबसे बुरे व्यक्ति के जीवन में उतरना एक विलक्ष्ण अनुभव हो सकता है। अमरीश पुरी निराश नहीं करते, ‘जीवन का रंगमंच’ के रूप में प्रकाशित उनकी जीवनी कभी अभिनय की टेक्स्ट बुक लगती है, तो कभी थियेटर पर गंभीर चिंतन, कभी सिनेमा को समझने की कोशिश तो कभी जिंदगी को बेहतर बनाने का एक बुजुर्ग का फलसफा। जब आपके घनिष्ठ लोगों का स्वर्गवास होता है तो आप को भी याद दिलाता है कि आप भी अपनी अन्तिम यात्रा के निकट पहुंच रहे हैं।’ अपने भाई चमन, विजय आनंद, यश जोहर, गुजराती नाट्य निर्देशक कांति मढ़िया के निधन ने शायद उन्हें अपने अंत का आभाष दे दिया था, इसी लिए इस पूरी पुस्तक में वे एक श्रेष्ठ अभिभावक की भूमिका में नजर आते हैं, जो अपनी आने वाली पीढ़ी को अपना सर्वश्रेष्ठ सौंप देना चाहता हो।

कतई आश्चर्य होता है जब रंगमंच, अभिनय, समांतर सिनेमा की गहन चर्चा के बीच वे यह कहना भी नहीं भूलते कि आपको बहुत कम खाने की आदत डालनी चाहिए। हम जितना खाते हैं, शरीर को बस एक तिहाई की आवश्यकता होती है। अपने पेट से कूड़े दान की भांति व्यवहार करने से मुझे घृणा है। सहलेखिका ज्योति सभरवाल की लंबी भूमिका के अतिरिक्त पुस्तक के तीन खंडों में अमरीश पुरी अपने बारे में वे सारी बातें बताने को आतुर दिखते हैं, जो कभी किसी के काम आ सकती है। हिन्दी सिनेमा के आम कलाकारों की तथाकथित बेस्ट सेलर ‘बायोग्राफी’ के रूप में इसे देखने वाले को निराशा हो सकती है, क्योकि इसमें न तो अंतरंग सम्बन्धों की कोई सनसनी है, न ही किसी व्यक्तिगत रागद्वेष की चर्चा। चर्चा है जरूर लेकिन अमरीश पुरी के लिए व्यक्ति से अधिक महत्वपूर्ण कलाकार होते हैं। वे नरगिस, मीना कुमारी, वहिदा रहमान, नूतन, माला सिंहा की विस्तार से चर्चा करते हुए लिखते हैं, हमें याद करना चाहिए कि वे उस विशेष स्तर तक कैसे पहुंचे और उनका योगदान कैसे समय और स्थान की सीमाओं को लांघ सका।

अपनी जीवनी में अमरीश पुरी की अपने बारे में बताने से ज्यादा अपने जीवन के उन सूत्रों को खोलने में होती है जिसके बल पर वे एक सफल रंगकर्मी, सफल अभिनेता, और सफल व्यक्ति बन सके। निश्चित रूप से उनकी कोशिश पाठकों के सामने एक अनुकरणीय संसार रचने की होती है। पुस्तक के पहले खण्ड ‘संघर्ष काल’ में उनके बचपन की यादें हैं, कॉलेज के दिनों के संघर्ष हैं, संगीत और रंगमंच के प्रति उनके आकर्षण की चर्चा है। और चर्चा है एक मध्यवर्गीय नौजवान के दुविधाओं की। अभिनेता मदनपुरी के अपने और के. एल. सहगल के चचेरे भाई अमरीश पुरी अभिनेता बनने ही मुम्बई आये थे, लेकिन जब पृथ्वीराज कपूर ने उन्हें अपने नाटक में काम करने का अवसर दिया तो उन्होंने स्पष्ट कहा, ‘पापा जी, निश्चय ही मैं थियेटर करूंगा परन्तु बाद में। अभी तो मैं एक नौकरी के लिए आवेदन कर रहा हूँ।’ बगैर लाग लपेट के अमरीश पुरी स्वीकार करते हैं कि थियेटर से कभी भी समुचित आजिवीका नहीं पायी जा सकती इसीलिए उन्होंने पहली फिल्म करने के छ: वर्ष बाद तक अपनी सरकारी नौकरी नहीं छोड़ी। अपनी जीवनी मैं अमरीश पुरी खास तौर से परिवार के महत्व को रेखांकित करते हैं। बचपन में अपने मां पिता और रिश्तेदारों के योगदान के बाद अपनी पत्नी उर्मिला के साथ तक को, जिनसे उन्होंने पारिवारिक विरोध के बावजूद अन्तरजातीय विवाह किया था। सरकारी नौकरी में क्लर्क की नौकरी करते हुए मिले साथ को अमरीश पुरी ने सफलता के शिखर पर पहुंच कर भी ससम्मान कायम रखा। ‘यदि वह सब समय मेरे निर्णयों में मेरा साथ न देती तो आज मैं यहां न होता’, लगभग सवा तीन सौ पृष्ठों की किताब में पुरी कई बार उर्मिला की चर्चा पूरे सम्मान के साथ करते हैं।

‘जीवन का रंगमंच’ वैसे विरले पुस्तकों में है जिसकी कोई भी पंक्ति छूट जाने पर कुछ महत्वपूर्ण छूट जाने का अंदेशा बना रहता है। ‘संघर्ष काल’ में अपने थियेटर के दिनों को उन्होंने काफी आत्मीयता और श्रद्धा के साथ याद करने की कोशिश की है। अपने गुरू सत्यदेव दुबे और अल्काजी के बारे में तो वे स्पष्ट कहते हैं कि उनकी क्षमता को शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। अपने आपको रंगमंच की देन बताते हुए वे ये आह्वान करने से भी नहीं चूकते कि किसी भी सामाजिक वातावरण में प्रगतिशील और विचारशील लोगों का यह दायित्व है कि वे रंगमंच को अपने जीवन का अभिन्न अंग बनाये।

अमरीश पुरी अपने पुस्तक में पाठकों से अभिनय की तमाम बारिकियों को शेयर करते हैं, जो उन्होंने अपने गुरू सत्यदेव दुबे, पी.डी. शिनाय, अल्काजी के अतिरिक्त अपने जीवनानुभव से सीखी थी। ‘जब आप अपने संवाद बोलते हैं तो आप जिस कलाकार के साथ संवाद कर रहे है, उसे अपने संवाद का अर्थ समझाने का प्रयत्न भी कर रहे होते हैं। आप को उसे अपने शब्दों के माध्यम से जीतना होता है। ऐसा सीधे सीधे भी किया जा सकता है परन्तु जब आप सामान्य गतिक्रम में कुछ अतिरिक्त जोड़ते हैं तो पात्र को और भी रूचिकर बना देते हैं।’

अमरीश पुरी की विशेषता है कि वे बातों को सप्रयास नहीं कहते, कथात्मक शैली में एक के बाद एक बातों के तार जुड़ते चले जाते हैं, जो जिस सहजता से कहे जाते हैं, पाठकों के लिए उतने ही महत्वपूर्ण होते हैं। पृथ्वीराज कपूर का विराट व्यक्तित्व हम सबके आकर्षण का केन्द्र रहा, यह जानना वाकई विलक्ष्ण लगता है कि किस तरह नाटक समाप्त हो जाने के बाद ‘पापा जी दरवाजे पर झोली फैला कर खड़े हो जाते और मानवता की सेवा के लिए दान इकट्ठा करते, और जिसे वे चाहते अच्छे शगुन के रूप में उसे एक रूपया देते।’ पुरी कहते हैं, भारतीय रंगमंच पर फिर उनके जैसे भव्य व्यक्तित्व वाला कोई कलाकार नहीं हुआ। ‘गांधी’ फिल्म की जब चर्चा होती है तो पूरे विस्तार से उसके निर्माण की प्रक्रिया की चर्चा करते हुए वे हिन्दी सिनेमा के निर्माण के कमजोरियों को भी साथ-साथ रेखांकित करते चलते हैं। जब वे ऐटेनबरो को धैर्यवान निर्देशक बताते हुए यह कहते हैं कि वे कैमरे के ठीक नीचे बैठ जाते और इतनी कोमलता से साउण्ड एक्शन की घोषणा करते कि उनके शब्द प्राय: सुनाई ही नहीं देते। वे अपनी आवाज का स्तर बहुत धीमा रखते थे जिससे कि अभिनेताओं की एकाग्रता भंग न हो। लगता है अमरीश पुरी हिन्दी फिल्मकारों को अपने काम की गम्भीरता याद दिला रहे होते हैं।

‘शो बिजनेस’ खण्ड में अमरीश पुरी सिनेमा में अपने सफर को याद करते हैं। फिल्मों में देर से शुरूआत करने वाले पुरी कहते हैं कि मैं फिल्मों में शुरूआत करने से पहले एक पूर्ण और सक्षम अभिनेता बनना चाहता था। मैंने सही मार्ग का चुनाव किया। कार्य क्षेत्र में कूदने से पूर्व कला का सीखना जरूरी होता है। वे कहते है, एक डाक्टर को भी डाक्टर बनने में पांच वर्ष का समय लगता है आप को भी अपनी कीमत पर सीखना चाहिए, न कि निर्माताओं को जोखिम में डालकर। दस फिल्मों के बाद भी किशोर वय स्टार पुत्रों को अपनी स्टारडम की चाहत में निर्माताओं को जोखिम में डालते रहने की जिद को देख अमरीश पुरी के बातों की गम्भीरता समझी जा सकती है।

अमरीश पुरी समान्तर सिनेमा की परंपरा से आते हैं। इसके महत्व को पूरी तरह स्वीकार करते हुए वे कहते है, ‘यही वास्तविक सिनेमा है। जब तक चबाने को कुछ न हो आप ऐसे ही अपने होंठ नहीं काट सकते’ समान्तर सिनेमा के साथ हुए श्याम बेनेगल और गोविन्द निहालाणी की समृद्ध परम्परा को भी दर्शकों के सामने रखते हैं और ‘भारत एक खोज’ और ‘तमस’ को याद करते हुए वे टेलीविजन माध्यम की सीमा को भी रेखांकित करते हैं, ‘टेलीविजन कलाकार की रहस्यात्मकता को नष्ट कर डालता है’।

पुस्तक का अन्तिम खंड है ‘जीवित रहने की कला’, वास्तव में इसमें अमरीश पुरी एक दार्शनिक की भूमिका में दिखते हैं जो पाठकों से बेहतर जिन्दगी के सूत्र शेयर करते हैं। आश्चर्य नहीं कि हिन्दी सिनेमा के इस सबसे बुरे आदमी की जीवनी अपने पाठकों को बेहतर जिन्दगी का शऊर सीखाने वाले किसी कुन्जिका की तरह लगते हैं। निश्चित रूप से पुरी के साथ सह लेखिका ज्योति सभरवाल को भी इसका श्रेय जाता है। और सबसे बढ़कर बेहतरीन हिन्दी अनुवाद के लिए नीरू को, पराकथन में वे इस अनुवाद के लिए किये गए जिस होमवर्क का उल्लेख करती हैं, पूरी किताब की संप्रेषनीयता उसे प्रमाणित करती है। अमरीश पुरी के लिए न सही, एक बेहतर अभिनेता और बेहतर इंसान बनने के लिए जरूर पढ़ी जानी चाहिए यह किताब।

1 comment:

  1. अमरीश पुरी के साहित्यिक, सहृदय रूप से साक्षात्कार कराने के लिए धन्यवाद। पढ़कर सचमुच अच्छा लगा। पाठक को कुछ नया, उपयोगी देने के लिए जो श्रम किसी लेखक को करना चाहिए, वह आपने किया है। किसी को भी पुस्तक पढ़ने की ललक पैदा हो सकती है। बधाई!

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