Wednesday, June 22, 2011

लोकरंग में संघर्ष गाथा

अगिन तिरिया (नाटक)

लेखक - रवीन्द्र भारती

प्रकाशक - राधाकृष्ण, दिल्ली

मूल्य - दो सौ रूपये

आओ, चलें

जल्दी करो, जल्दी करो

तिरिया सभी आ गइ हैं रचकर स्वांग

खेल शुरू होने वाला है गाय घेरने का

पानी जो हमारा उठा कर ले गए हैं बादल वादल

उन्हें बुलाने का।

बादल वादल क्या हैं? फिर क्या हैं?

रवीन्द्र भारती की ‘अगिन तिरिया’ इसी आहवान के साथ शुरू होती है। लेकिन उसके बाद लोकरंग का ऐसा विहंगम वितान भारती रचते हैं जहां हिन्दी की खरी बोली चुपचाप दम साधे खड़ी दिखती है, अपनी बारी की प्रतीक्षा में। सवाल अपनी जगह है कि लोकतत्वों की यह गहनता किसी भी कृति की स्वीकार्यता को क्या सीमित नहीं कर देती। लेकिन ‘अगिन तिरिया’ में वर्णित संघर्ष और समस्या की व्यापकता की पराकाष्ठा ही है कि हिन्दी की गुंजाइश वे बनने ही नहीं देते। ऐसा लगता है कि अपने नवीनतम नाटक ‘अगिन तिरिया’ में भारती लोक भाषाओं के सामर्थ को स्थापित करने के लिए कृत संकल्पित हों। ‘अगिन तिरिया’ हिन्दी की लोक भाषाओं के विलक्षण आस्वाद की दृष्टि से एक अभिनव कृति है, जहां आपको अपने ही शब्दों के लिए फुट नोटस भी मिलते हैं, लेकिन शब्दों का अपनापन इस फुटनोटस को नाटक के पठन की गति में बाधक नहीं बनने देते, बल्कि अपने जड़ों से जुड़ने का सुख देते हैं। बावजूद इसके ‘अगिन तिरिया’ का महत्व सिर्फ लोक भाषाओं के लिए नहीं माना जा सकता। क्यों कि निर्देशक सुमन कुमार के शब्दों में कहें तो इसकी अपनी प्रासंगिकता, व्यापक विषय वस्तु, सांकेतिक विम्ब योजना एवं दृश्य विधान, लोक रंजक पात्र एवं उनके यथेष्ट नाटकीय व्यवहार, कहीं उससे ज्यादा महत्वपूर्ण हैं।

संस्कृति कर्मी और साहित्यकार से ज्यादा एक सामाजिक आनदोलनकारी के अपनी पहचान को सार्थक करने में निरंतर सक्रिय रवीन्द्र भारती की कृति से पाठकों को यही आशा भी रहती है। उनकी पूर्व की रंग कृतियों ‘कम्पनी उस्ताद’, ‘फूकन का सुथन्ना’, ‘जनवासा’ की तरह ‘अगिन तिरिया’ भी सामाजिक सामानता के संघर्ष के बुनियादी मुद्दों को रेखांकित करती है। कथा की पृष्ठभूमि किसी अजाने से काल खण्ड की है, लेकिन कथानक का ताना बाना भारती कुछ ऐसा रचते हैं कि हरेक पाठक अपने समय से उसे रिलेट कर सकता है। शुरूआत झमटा नृत्य से होती है। झमटा, बिहार के लुप्त प्राय जनजाती थारूओं का पारंपारिक नृत्य है। पता नहीं, आधुनिक रंगमंच पर किस हद तक और किस तरह इसका निर्वाह हो पायेगा। ना भी हो, फिर भी लुप्त प्राय संस्कृति को पुर्नजीवन देने की इस कोशिश का महत्व कम नहीं हो जाता। कहीं न कहीं जरूर यह संस्कृतिकर्मियों को अपनी पारंपारिक सांस्कृति रूपों के प्र्रति जरूर हो सकती है।

‘अगिन तिरिया’ को लेखक ने तीन अंकों और बीस दृश्यों में विभाजित किया है। लेकिन निर्देशक सुमन कुमार स्पष्ट करते हैं कि शैली में लचिलापन और नाटकीयता है जिसे कल्पना की सान पर लोकरंजक एवं सांकेतिक नाटकीय मुहावरे में जीवन्त करने की पूरी संभावना दिखती है। नाटक के प्रथम खण्ड में संघर्ष की पूर्व पीठिका देखी जा सकती है। सभ्यता के हासिये पर छूट गए लोगों और कथित सभ्यता पर अ​िध्कार जमाये रखने ताकतवर लोगों के द्वंद को यहां भारती पूरी सिद्दत से रेखांकित करते हैं। लेकिन इसके लिए बिम्ब का जो वितान वे रचते हैं वह पाठकों को एक अलग ही कल्पना लोक में ले जाता है। जहां हिहड़ी-पिपड़ी भी है, वन देवी भी, बादलों को आमं​ित्रात करने के टोटके भी, सन्यासी का आतंक भी और अप्सरा का सौंदर्य भी। बहुत कुछ जो हम नहीं जानते हैं, लेकिन जिस सहजता से भारती इसे अपने कथानक में पिरोते हैं, लगता है हमें जानना चाहिए।

मात्या, सुआ, बेली, चेची, साखा, सत्यमुख, अरण्य सुभंग, तामू.... नाटक के प्रथम पृृष्ठ पर ही लगता है एक अजनबी दुनियां में हमारा प्रवेश होने वाला है। लेकिन जैसे-जैसे कथा भूमि खुलते जाती है पाठक उन्हें पहचानने लगते हैं। और नाटक की समाप्ती तक अपने आपको उसमें ढ़ूंढ़ भी सकते हैं। वास्तव में यह अपरिचित नामावली कथानक के प्रति पाठकों की आरम्भिक जिज्ञासा जगाने में सक्षम होती है। नाटक के दूसरे अंक में चार दृश्य हैं। दूसरे दृश्य में जुगनुओं के कथा के माध्यम से संघर्ष और साहस के अदभुत बिम्ब की संरचना भारती करते हैं। अंध्ेरे के खिलापफ लड़ते हुए किस तरह जुगनु तारे तक पहुंचे और पिफर वहां से रौशनी लेकर पृथ्वी तक आये। अपने आप में यह छोटी सी कथा ढ़ेर सारे निहितार्थ समेटे लगती है। ‘अगिन तिरिया’ की कथा भूमि की यह विशेषता है कि इसमें छोटे-छोटे उपकथाओं के माध्यम से बड़ी-बड़ी बातों को सहजता से कहने या कुछ हद तक समझाने की कोशिश की गर्इ है। वास्तव में यही रवीन्द्र भारती की पहचान भी है। लेकिन यह भी उल्लेखनीय है कि रवीन्द्र कला पर विचार को कभी हावी नहीं होने देते।

तीसरे अंक में नौ दृश्य हैं। इसके विभिन्न दृश्यों में आज भी प्रचलित कर्इ आदिवासी लोक उत्सवों और लोक गाथाओं की पहचान सहजता से की जा सकती है। भारती की कोशिश संघर्ष की परम्परा से हमें मुखातिब करने की होती है। इसके अंन्तिम दृश्य में मां अग्नि प्रकट होती है। वह पुरोहितों के नियंत्राण में हैं, लेकिन मात्या आती है और अग्नि छीन कर भाग जाती है। पुरोहितजन उसके पीछे भागते हैं लेकिन मात्या उनसे बचकर अग्नि और आलोक को जंगल और गांवों में बांट देते हैं। हर ओर प्रकाश पफैल जाता है। ‘अगिन तिरिया’ की आखिरी पंक्तियां हैं, ‘लगता है प्रकाश अंध्ेरे में सिर उठाये सन्यासी पुरोहितों को चिढ़ा रहा हो।’ वाकर्इ मंच पर इस दृश्य को देखना एक अदभुत अनुभव हो सकता है।

‘अगिन तिरिया’ में सात मुख्य महिला पात्राों के साथ पांच लड़कियां भी हैं, यानि कुल बारह महिला पात्रा। सतरह पुरूष पात्राों के बरक्स ये संख्या वास्तव में तत्कालीन समाज में महिलाओं के महत्व को प्रदर्शित करती है। उल्लेखनीय है कि यहां अ​िध्कांश पुरूष खल पात्रा के रूप में हैं जबकि महिलायें नायक के रूप में उनसे जुझते दिखार्इ देती हैं। निश्चित रूप से शोषितों में शोषित नारी जाती का यह नायकत्व समाज के अन्तिम व्यक्ति के साहस को रेखांकित करता है। सुआ अपनी मां से स्पष्ट कहती है, ‘इतना डर कर हम नहीं रह सकते मां। मारे जायेंगे तो मारे जायेंगे। भय के चलते आवाज नहीं कर सकते, ताली नहीं बजा सकते, हंस नहीं सकते। यह तो मुझसे नहीं होगा’ महिला पात्राों के यह हिम्मत बरबस ही राहुल सांकृत्यायन की ऐतिहासिक कृति ‘वोल्गा से गंगा’ की याद दिला जाती है। पुस्तक के आकर्षक आवरण के फ्रलैप पर लिखा भी गया है, सभ्यता के आरम्भिक काल से लेकर उत्तर आध्ुनिक भविष्योन्मुख रचना है ‘अगिन तिरिया’ जिसमें अनवरत संघर्ष की नारी गाथा संयोजित है। वास्तव में आज जब महिला सशक्तिकरण की बात नए सिरे से उठाये जाने लगी है, भारती इसके ऐतिहासिक संदर्भ को उकेरने की कोशिश करते हैं। ‘अगिन तिरिया’ स्पष्ट कहती है, महिलाओं को अ​िध्कार देने का उपकार आप नहीं जता सकते, उनके पास अपने अ​िध्कार लेने का साहस है और जजबा भी। वे दिखती कमजोर हों, लेकिन अग्नि की वाहक वही हैं।

हिन्दी में अच्छे नाटक नहीं लिखे जा रहे हैं। यह सच भी है। लेकिन यह भी सच है कि रवीन्द्र भारती पूरी रंग समझ और प्रतिब(ता के साथ नाटय लेखन को समृ( करने में जुटे हैं, अपनी कविताओं की जानी पहचानी जमीन की कीमत पर। पूर्व के नाटकों की तरह ‘अगिन तिरिया’ में भी मंच के प्रति उनकी समझ और चिन्ता प्रदर्शित होती है। दृश्य संरचना और संवाद से गुजरते हुए स्पष्ट महसूस किया जा सकता है कि ‘अगिन तिरिया’ सिर्पफ पढ़ने के लिए नहीं लिखी गइ है। इसकी सार्थकता वाकइ मंच पर भी है।



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