Sunday, July 31, 2011

धुनों के संसार की विस्मयकारी यात्रा

पुस्तक का नाम - धुनों की यात्रा
लेखक - पंकज राग
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
पृष्ठ - 750


पंकज राग के साथ ‘धुनों की यात्रा’ पर निकलना किसी भी व्यक्ति के लिए एक अविस्मरणीय अनुभव बन सकता है। कुछ ऐसा ही जैसे शाहजहां खुद ताजमहल की सुंदरता दिखाने आपके साथ हों, रेशे-रेशे से वाकिफ, जिसने संगमरमर की पंखुड़ियों को सिर्फ देखा नहीं, जिया है। जो भी आप जानना चाहते हैं और जो भी आपको जानना चाहिए, सारी जानकारियां पूरी आत्मीयता से, विश्वसनीयता से और विस्तार के साथ देने को आतुर। शाहजहां और ताजमहल से इस पुस्तक की तुलना इसलिए भी प्रासंगिक है कि हमें अपने हर सफर के पहले लगता है, भला ताजमहल में क्या देखना, देखा तो है। लेकिन देखने के बाद लगता है कितना कुछ शेष था देखने को। यह अधूरापन कायम ही रहता है क्यों कि शाहजहां हमारे साथ नहीं हो सकते। सुखद है कि ‘धुनों की यात्रा’ में पंकज राग हमारे साथ ही हैं।
1931 से 2005 तक के संगीतकारों पर केन्द्रित पंकज राग की पुस्तक ‘धुनों की यात्रा’ वास्तव में एक ऐसी दुनियां में प्रवेश का अनुभव देती है, जिसके बारे में हममें से अधिकांश आश्वस्त हैं कि उसे या तो सबकुछ मालूम है या फिर मालूम करने की जरूरत भी नहीं। लेकिन इस जानी पहचानी दुनियां की बातें जैसे-जैसे पंकज पलटने लगते हैं हमारी जिज्ञासा विस्मय में बदलने लगती है। बड़े आकार के लगभग 750 पृष्ठों की इस भरी पूरी पुस्तक से गुजरते हुए शायद ही कहीं पर यह अहसास होता है कि इसे हम क्यों जाने, बल्कि पृष्ठ दर पृष्ठ यही अहसास बना रहता है कि हम इसे अभी तक क्यों नहीं जान पाए।
पांचवें दशक के पूर्व को आरंभिक दौर मानते हुए पंकज राग भी हिन्दी सिनेमा के इतिहास की इस जानकारी को फख्ता करते हैं कि सिनेमा और संगीत का संयोग मूक फिल्मों के दौर में भी था लेकिन तकनीकी रूप से सिनेमा संगीत के बिना ध्वनि के अवतरण के बाद ही मानी जा सकती है। पहली बोलती फिल्म ‘आलम आरा’ के संगीतकार फिरोज शाह मिस्त्री को पहला संगीतकार मानते हुए पंकज लिखते है, ‘पहला हिन्दुस्तानी गाना इसी फिल्म में था,. जिसे गाया था फिल्म के अभिनेता डब्ल्यु एम खान ने। एक फकीर के रोल में डब्ल्यु एम खान ने गाया, ‘दे दे खुदा के नाम पे प्यारे, ताकत है गर देने की, कुछ चाहे अगर मांग ले मुझसे, हिम्मत हो गर लेने की। वे आगे ये भी जानकारी देते हैं, मात्र एक तबले और एक हारमोनियम के साथ सृजित इस गीत का रेकार्ड नहीं बना था। पंकज राग के इस यात्रा की यही विशेषता है, वे गाइड की तरह झलकियां नहीं दिखाते, इतिहासकार की तरह विषय में प्रवेश का अवसर देते हैं।
‘‘मैंने प्रयास किया है कि न केवल संगीतकारों की जीवनी के विवरण दिए जाएं और न सिर्फ उनकी फिल्मी संगीत सभा को ही रेखांकित किया जाए, बल्कि उनकी संगीत प्रवृति की विश्लेषणात्मक विवेचना भी हो। रचनाओं में शास्त्रीय रागों और तालों का असर, लोकरंग का प्रभाव या अन्य बारीकियां तथा गीतों की विशिष्टताओं का भी वर्णन करने का प्रयास मैंने किया है।’’ इन संगीतकारों के संगीत की विशेषताओं को बदलते सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक संदर्भ के साथ देखने की भी कोशिश की गर्इ है। भूमिका में किए अपने निवेदन का निर्वाह करते पूरी फस्तक में पंकज देखे जा सकते हैं। आश्चर्य नहीं कि शंकर, एहसान, लाय की तिकड़ी को वे भूमंडलीकरण और नई सदी की बदली आर्थिक-सामाजिक प्रवृतियों के प्रतिनिधि के रूप में रेखांकित करते हैं। आज के दौर के सबसे प्रतिभाशाली संगीतकार के रूप में स्वीकार करते हुए पंकज लिखते हैं, ‘एक ओर आज की एन. आर. आइ. संस्कृति की इच्छाओं और मनोभावों के अनुकूल उपयुक्त वस्तुनिष्ठ संगीत दिया है तो साथ ही अंतर्राष्ट्रीय प्रवृतियों को भारतीय संदर्भ में स्थित करने के उनके प्रयास ने आधुनिक भौतिकवादी आकांक्षाओं को आपाधापी और व्यक्तित्व से लेकर सामाजिकता के बाजारीकरण के बीच मूल्यों और भावनाओं की क्षणभंगुरता से उभरे दर्द और उदासी को भी कुछ जमीन अवश्य दी है। ‘कल हो न हो’ जैसी चर्चित फिल्म ही नहीं पंकज की विस्तारित दृष्टि से अभिष्ट संगीतकार की शायद ही कोर्इ अल्पचर्चित कृति भी बच पाती है।
हिन्दी साहित्य का इतिहास दशकों के विभाजन को बहुत मान्यता नहीं देती लेकिन यह भी सच है कि जब प्रवृतियां बहुत स्पष्ट विभाजित नहीं हो तो अध्ययन का सबसे बेहतर तरीका दशकों को ही आधार बनाना होता है। पंकज राग भी दशकों के विभाजन पर यकीन करते हैं। हालांकि भूमिका में पंकज ने स्वयं ही इस विभाजन की दिक्कतों का भी उल्लेख करते हुए कहते हैं, कुछ संगीतकार को तो पहचान मिलने में ही दो दशक लग गए, तो कुछ की सक्रियता किसी खास दशक के आर-पार रही। पंकज पहचान को आधार बनाकर बढ़ते हैं, आर. डी. बर्मन की चर्चा करते हुए वे स्पष्ट कहते हैं उनकी आधुनिक शैली ने अपनी छाप सातवें दशक में ही छोड़ दी थी, पर उसका व्यापक प्रभाव अगले दशक में होने के कारण उनकी चर्चा आठवें दशक की प्रवृतियों वाले आलेख के बाद की गई है।
पंकज राग की ‘धुनों की यात्रा’ में पांचवे से लेकर नवें दशक की प्रवृतियों को विश्लेषित किरते अलग-अलग आलेख हैं। तदुपरांत प्रत्येक दशक के साथ उस दौर के चुने हुए संगीतकारों पर विस्तार से चर्चा की गर्इ। लेकिन इस ‘चुने हुए’ की संख्या का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि छठे दशक के अंतर्गत 39 संगीतकारों पर आलेख हैं, जबकि बड़े-बड़े संगीत के जानकार के लिए छठे दशक में चित्रगुप्त, वसंत देसाई, सचिन देव वर्मन, शंकर जयकिशन, मदन मोहन, ओ. पी. नैयर, सलिल चौधरी, रवि और रौशन के नामों से आगे बढ़ना कठिन हो जाता है। विषय के प्रति पंकज के समर्पण को इसी से समझा जा सकता है कि 39 संगीतकारों पर लिखने के बावजूद वे रूकते नहीं हैं, उस दशक के अन्य छूटे हुए संगीतकारों की चर्चा सत्रह पृष्ठ के एक अलग आलेख में करते हैं, जिसमें अली अकबर खां जैसे शास्त्रीय संगीत की विभूति की भी चर्चा है, जिन्हें चेतन आनंद ने अपनी फिल्म ‘आंधियां’ में संगीत देने के लिए तैयार किया था, और सुधा मल्होत्रा की भी, जो मूलत: गायिका थी, लेकिन ‘दीदी’ के निर्माण के समय संगीतकार एन. दत्ता के बीमार पड़ जाने के कारण साहिर के एक गीत की धुन स्वयं बनायी थी। इसी आलेख में संगीतकार के रूप में मन्ना डे और मुकेश के योगदान के बारे में भी जानना दिलचस्प ही नहीं होता, लेखक के पूर्णता की हद तक पहुंचने की जिद भी प्रदर्शित करता है।
अपने शोध के प्रति पूरी गंभीरता रखते हुए भी पंकज राग ‘धुनों की यात्रा’ को महज एक शोध ग्रंथ नहीं बनने देते, यह उस वृहत ग्रंथ की सबसे बड़ी सफलता है। वास्तव में वे जब किसी संगीतकार की चर्चा करते हैं तो वहां शोधकर्त्ता की निरपेक्षता नहीं बल्कि मित्र की आत्मीयता झलकती है, रौशन को अंतर्मुखी और शान्त व्यक्तित्व का मालिक बताते हुए वे लिखते हैं, ‘‘दम्भ उनमें बिल्कुल भी नहीं था। किसी भी महफिल में हारमोनियम उठाकर किसी भी गायक का साथ दे देना उनके लिए आम बात थी। पर साथ ही निराशावादी विचार उनके अंदर हमेशा मंडराते रहते थे। आत्मविश्वास की कमी थी और यही कारण है कि यदि लोग उनके किसी धुन की तारीफ करते थे तो वे बेहद प्रसन्न हो जाते थे। रोशन में व्यावहारिकता भी नहीं थी - किसी के पास मांगने में वे कतराते थे।’’ किन्हीं के व्यक्तित्व को चित्रित करते हुए पंकज पाठकों के बीच से बिल्कुल हट जाना चाहते हैं और कोशिश करते हैं कि पाठक अभिष्ट व्यक्तित्व को गहनता से स्वयं रू-ब-रू हो।
‘व्यक्ति’ के साथ पाठकों की आत्मीयता स्थापित करने के की कोशिश में पंकज राग पाठकों को वह जानकारी भी देते हैं जिसे जानने की बहुत जरूरत तो नहीं होती, लेकिन उसे जानना दिलचस्प होता है। एस. डी. बर्मन की चर्चा करते हुए पंकज यह भी बताना जरूरी समझते हैं कि वे लता मंगेशकर की रिकार्डिंग से जब बहुत खुश हो जाते थे तो उसे पान पेश करते थे और यह भी कि जब लता ने ‘पग ठुमक चलत बलखाए’ की रिकार्डिंग दुबारा कराने से इन्कार कर दिया तो उन्होंने स्पष्ट कहलवाया, यदि लता को इस गीत की जरूरत नहीं तो उनको भी लता की जरूरत नहीं। पंकज आगे यह भी बताते हैं कि लता मंगेशकर और एस. डी. बर्मन के इस विवाद का फायदा आशा और गीता को मिला।
वास्तव में यही छोटी-छोटी बाते हैं जो पंकज राग की ‘धुनों की यात्रा’ को बोझिल होने से बचाती हैं। हालांकि उल्लेखनीय यह भी है कि इस तरह के क्षेपक हिन्दी फिल्म संगीत के इतिहास के सफर को कहीं भी दिक्भ्रमित नहीं करती। फस्तक की प्रस्तुति एक अलग चर्चा की मांग करती है। किंचित आश्चर्य होता है और पंकज के श्रम के प्रति सम्मान भी कि किस तरह उन्होंने ‘फ्रलाइंग प्रिंस’ और ‘डंका’ जैसे अचर्चित फिल्मों के पोस्टर और तलत महमूद अभिनीत फिल्मों के फोटोग्राफ जुटाए होंगे। ये तस्वीरें सिर्फ फिल्मों के दृश्य के लिए ही नहीं बल्कि उस काल की भाषा, लिपि, कला और छपार्इ की तकनीक की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हैं। चाहे सरोज मूवीटोन का ‘महान सामाजिक बोलपट’ के रूप में ‘चन्द्रा’ या ‘मॉडर्न गर्ल’ का विज्ञापन हो या ‘दिल की प्यास’ का पम्फलेट पर कज्जन की तस्वीर हो या प्रभात स्टुडियो में लगे ‘माया मछिन्द्र’ के सेट की सभी अपने आप में एक मुकम्मल इतिहास बयान करती लगती हैं। बेहतर होता यदि इतनी महत्वपूर्ण पुस्तक में प्रूफ की भी गलतियां नहीं होती, ‘अगर’ या ‘अलग’ जैसी गलतियां तो भूली भी जा सकती हैं, लेकिन मुश्किल हो जाती है जब लगातार दो पंक्तियों में एक में अभिनेता डब्ल्यू. एम. खान होते हैं दूसरे में डब्ल्यू. एस. खान। हिन्दी की तो ये स्थिति है कि पाठाकें के पास इस दुविधा से उबरने के लिए कोइ अन्य संदर्भ स्रोत भी नहीं।
‘धुनो की यात्रा’ संतोष देती है कि हिन्दी में साहित्येतर कलाविधाओं खासकर सिनेमा के प्रति गंभीर लेखकों के हिचक टूट रहे हैं। पंकज की यह कोशिश हिन्दी साहित्यकारों को यह अहसास कराने में सक्षम होती है कि कला की किसी बड़ी दुनियां से उन्होंने स्वयं को वंचित रखा है और अपने पाठकों को भी।

Tuesday, July 12, 2011

प्रसारण मीडिया का इतिहास और मुल्यांकन

पुस्तक      -    भारत में जनसंचार और प्रसारण मीडिया
लेखक      -    मधुकर लेले
मुल्य       -    तीन सौ रूपये
प्रकाशक    -    राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा. लि.
                दरियागंज, नइ दिल्ली-2

              जनसंचार के सूत्र उपनिषद से ग्रहण करते हुए मधुकर लेले लिखते हैं, ‘सबकी अंत: प्रेरणाए हृदय और मन में एकरूपता हो तभी समाज सुचारू रूप से चलेगा। इसके लिए जरूरी है कि व्यक्तियों के बीच संवाद, संचार, संप्रेषण अविरल चलता रहे’। जनसंचार शायद सभ्यता की अनिवार्यता रही है। या कह सकते हैं जनसंचार के विकास और सभ्यता के विस्तार में अन्योन्याश्रय संबंध रहे हैं। किसी किसी रूप में वह जनसंचार का ही एक रूप होगा जिसमें मानव को बाकी जीवों से अलग होने की प्रेरणा दी होगी। जनसंचार को विस्तार देते हुए लेले लिखते हैं, ‘वर्तमान सांस्कृतिक परिवेश में संचार शब्द को कर्इ अर्थों और संदर्भों में लिया जाता है। जिस किसी रूप में भावों का आदान-प्रदान हो, संवाद चले, चर्चा हो, चाहे वह प्रत्यक्ष हो, परोक्ष हो, सभा में हो, मेले में हो, लिखत हो या पढ़त में, बेतार के जरिए हो, जैसे फोन रेडियो, टी.वी., इंटरनेट सबकुछ संचार के दायरे में माना जाता है’।
              एक दशक से अधिक समय तक आकाशवाणी-दूरदर्शन के वरिष्ठ उप महानिदेशक के पद पर रहने का अनुभव मधुकर लेले की फस्तक ‘भारत में जनसंचार और प्रसारण मीडिया’ के हरेक पृष्ठ पर दिखता है। आरंभिक पृष्ठों पर ही महात्मा गांधी, पं. नेहरू, सरदार पटेल और इदिरा गांधी की आकाशवाणी-दूरदर्शन से जुड़ी तस्वीरें पुस्तक को एक दस्तावेजी महत्व देती हैं। जनसंचार और प्रसारण मीडिया नाम के अनुरूप ही लेले ने पुस्तक को दो खण्डों में विभाजित किया है, पहले खण्ड में जनसंचार सिद्धांत और माध्म का विवेचन है, दूसरे खण्ड प्रसारण मीडिया विमर्श में मूलत: भारत में टेलिविजन प्रसारण के विस्तार और उसके सामाजिक प्रभावों-सरोकारों की चर्चा की गई है।
                   जनसंचार सिद्धांत और माध्य का विवेचन करते हुए मधुकर लेले क्रमबद्ध ढंग से जनसंचार के सिद्धांत और उसके व्यवहारिक स्वरूप पर समय-समय पर हुए विमर्श को रेखांकित करते हैं। यह जानना वाकइ दिलचस्प लगता है कि आगामी खतरे को भांपते हुए 1974 में ही बोगोटा में हुए यूनेस्को के सम्मेलन में यह कहा गया था कि स्वतंत्र व्यवसाय के रूप में मीडिया के निजी स्वामित्व और प्रबंध को रोका जाय, क्योंकि इससे समाज में असंतुलन और विकास के बजाय उपभोग पर ध्या ज्यादा केन्द्रित होता जा रहा है। लेकिन यूनेस्को का प्रभाव 80 का दशक आते-आते तक पूर्णत: तिरोहित हो गया। डॉ. लेले मानते हैं कि वास्तव में संचार टेक्नोलोजी में इस दौर में जो अभूतपूर्व प्रगति हुइ उसने ‘विकास के लिए जनसंचार’ की समझ के स्थान पर उसे एक लाभकारी उद्योग के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया और अब उसे भूमंडलीकरण विस्तार के साथ जोड़ कर देखा जाने लगा है। इसके प्रभाव की चर्चा करते हुए लेले अपनी पुस्तक के दूसरे खण्ड में इंदिरा गांधी को उद्रित करते हैं, ‘मीडिया आज पूरे विश्व को एक साथ भौतिक समृद्धि के भड़कीले और लुभावने दृश्य दिखा रहा है जबकि दुनिया के अधिकांश लोगों को उनकी निहायत जरूरी चीजें भी नसीब नहीं हैं। लेले भले ही कुछ नहीं कहते, लेकिन यह टिप्पणी अपने आप में सवाल खड़े करती है कि आखिर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी यह किसे संबोधित कर रही थीं? और जब दूसरों को वे आहवान कर रही थीं तो आखिर खुद उनकी क्या भूमिका थी? सवाल यह भी है कि इंदिरा गांधी के नाम पर चल रही कांग्रेस आज उनकी वेदना को किस हद तक महसूस कर पा रही है? जनसंचार के बदलते स्वरूप को रेखांकित करते हुए लेले लिखते हैं, अब विज्ञापन का मुख्य उद्ददेश्य वस्तु की जानकारी से ज्यादा उसके लिए चाहत पैदा करना है। हालांकि अब इस बात को स्थापित करने के लिए किसी तर्क की जरूरत नहीं कि ‘विज्ञापनों में अतिरंजना’ और ‘नैतिकता के लिए कोर्इ खास गुंजाइश नहीं रही’ लेकिन लेले यहां मेरीलैण्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर बेंजामिन बी. बारबरा की पुस्तक का उल्लेख आवश्यक समझते हैं, जिसमें विस्तार से स्पष्ट किया गया है कि भूमंडलीकरण के दौर में विज्ञापनों के जरिए बाजार की शक्तियां बच्चों को भ्रष्ट और वयस्कों में बचकानी सोंच पैदा कर रही हैं। वाकइ इससे असहमत होने की कोइ गुंजाइश नहीं बनती जब लेले कुछ विज्ञापन निर्माताओं को उद्धृत करते हुए लिखते हैं कार्यक्रम तो बहाना है, दर्शक को आज उत्तेजना ;थ्रिल चाहिए और वो है विज्ञापनों के चटपटे और तेज स्वाद में।
              मधुकर लेले की धर्म, दर्शन और संस्कृति में रूचि फस्तक में मुखर होती दिखती है जब भारत में जनसंचार प्रणालियों की चर्चा करते हुए वेद से आरंभ करते हुए यह कहते हैं कि जनसंचार का पहला संगठित रूप फराणों के काल में ही दिखायी देने लगा था। इस संदर्भ में वे नारद मुनि के साथ महाभारत की युद्ध में संजय की दिव्य दृष्टि और अर्जून श्री कृष्ण संवाद का भी उल्लेख करते हैं। लेले चाणक्य के अर्थशास्त्र में जनसंचार के स्वरूप की तलाश करते हैं और नाटकों और उसके भाषायी बदलाव में भी। वे मानते हैं, आज जबकी टेक्नोलॉजी आधारित जनसंचार के अनेक प्रभावी माध्य लोकमानस पर अपना मजबूत पकड़ बना चुकें हैं, परम्परागत जनसंचार साधन फिर भी अपनी अहमियत रखते हैं। इसका आधार वे भारत की विविधता में तलाश करते हुए लिखते हैं, इसे स्वीकार्य किए बगैर भारत में कारगर रूप से जनसंचार नहीं हो सकता। आश्चर्य नहीं कि आंचलिक विशेषताओं का उपयोग आज जनसंचार की अनिवार्यता बन गइ है।
              मधुकर लेले जनसंचार माध्य के तकनीकी विकास पर श्रुति ;सुनी-सुनायी से शुरूआत करते हुए क्रमवार कागज पर छपायी, टेलीग्राफ, फोटोग्राफी, चलचित्र, रेडियो, टेलीविजन, उपग्रह से प्रसारण सेवा की चर्चा करते हुए भारत में इसके विकास की प्रक्रिया को खास तौर से रेखांकित करते हैं। 20 अगस्त 1921 के भारत में रेडियो के पहले प्रसारण से लेकर वाल्टर काउफमैन द्वारा वायलिन पर बनायी आकाशवाणी के सिग्नेचर ट्यून की जानकारी कई पाठकों के लिए नई हो सकती है। वे आकाशवाणी के कई कार्यक्रमों के बारे में जानकारी देते हैं, अच्छा लगता ‘आकाशवाणी’ से लेकर ‘विविध भारती’ और ‘अमृत वर्षिणी’ जैसे नामकरण की पूर्वपीठिका भी पाठकों को मिल पाती। आकाशवाणी के कार्यक्रमों के नामकरण में कायम शास्त्रीयता वाकइ उसकी धरोहर है।
              आकाशवाणी के साथ ही लेले दूरदर्शन के विकास की भी कहानी कहते हैं। इन सेवाओं से उनका व्यक्तिगत जुड़ाव रहा है। जाहिर है एक आत्मीयता भी दिखती है और तकनीकी जानकारियां देने में पूर्णता भी। लेकिन मीडिया के निजी हाथों में जाने की स्थिति के प्रति उनका असंतोष स्पष्ट दिखायी देता है। वे अपना निष्कर्ष देते हुए लिखते हैं, भारतीय मीडिया और खासकर प्रसारण मीडिया आज एक संक्रमण के दौर से गुजर रहा है। उसपर कर्इ तरह के दबाव हैं, जैसे राजनीतिक पक्षकारिता, लाभकारी उद्योग बनने की आकांक्षा, मीडिया में गलाकाटू प्रतिस्पर्द्धा और भूमंडलीकरण के प्रभाव में समाचारों की प्रस्तुति में आयी स्वछंदता। लेकिन उनके अनुभव उन्हें निरास नहीं होने देते। हालांकि जनसंचार की अपनी-अपनी परिभाषाए गढते विभिन्न प्रसारण माध्यमों की बाढ़ को झेल रहे दर्शकों के लिए उनकी उम्मीद से सहमत होना थोड़ा मुश्किल होता है कि वर्तमान दिशा भ्रम के इस दौर से मीडिया अपनी गौरवशाली परम्परा और स्वविवेक के सहारे खुद को शीध्र उबार लेगा। वास्तव में यह स्तक सिर्फ तथ्यात्मक जानकारी नहीं देती, जनसंचार के प्रसारण मीडिया को आत्मअवलोकन के लिए भी तैयार करती है। सबसे बढ़कर पाठकों को यह समझ देने की कोशिश करती है कि वे क्या देख रहे हैं और क्या उन्हें देखना चाहिए।