Thursday, June 30, 2011

बुरे आदमी की अच्छी दास्तान



जीवन का रंगमंच (जीवनी) - अमरीश पुरी
सह लेखिका- ज्योति सभरवाल। अनुवाद -नीरू

वाणी प्रकाशन नई दिल्ली - 2 मूल्य-495 रूपये



‘‘बड़े-बड़े सुखों की इच्छा जाने कब से मैंने छोड़ दी है

कभी उन्हें जमा करने के लिए इक गागर लाया था

मैंने अब फोड़ दी है’’

भवानी प्रसाद मिश्र की कविता से जब अमरीश पुरी अपने जीवन का सार अभिव्यक्त करते हैं तो स्पष्ट लगता है हिन्दी सिनेमा के इस सबसे बुरे व्यक्ति के जीवन में उतरना एक विलक्ष्ण अनुभव हो सकता है। अमरीश पुरी निराश नहीं करते, ‘जीवन का रंगमंच’ के रूप में प्रकाशित उनकी जीवनी कभी अभिनय की टेक्स्ट बुक लगती है, तो कभी थियेटर पर गंभीर चिंतन, कभी सिनेमा को समझने की कोशिश तो कभी जिंदगी को बेहतर बनाने का एक बुजुर्ग का फलसफा। जब आपके घनिष्ठ लोगों का स्वर्गवास होता है तो आप को भी याद दिलाता है कि आप भी अपनी अन्तिम यात्रा के निकट पहुंच रहे हैं।’ अपने भाई चमन, विजय आनंद, यश जोहर, गुजराती नाट्य निर्देशक कांति मढ़िया के निधन ने शायद उन्हें अपने अंत का आभाष दे दिया था, इसी लिए इस पूरी पुस्तक में वे एक श्रेष्ठ अभिभावक की भूमिका में नजर आते हैं, जो अपनी आने वाली पीढ़ी को अपना सर्वश्रेष्ठ सौंप देना चाहता हो।

कतई आश्चर्य होता है जब रंगमंच, अभिनय, समांतर सिनेमा की गहन चर्चा के बीच वे यह कहना भी नहीं भूलते कि आपको बहुत कम खाने की आदत डालनी चाहिए। हम जितना खाते हैं, शरीर को बस एक तिहाई की आवश्यकता होती है। अपने पेट से कूड़े दान की भांति व्यवहार करने से मुझे घृणा है। सहलेखिका ज्योति सभरवाल की लंबी भूमिका के अतिरिक्त पुस्तक के तीन खंडों में अमरीश पुरी अपने बारे में वे सारी बातें बताने को आतुर दिखते हैं, जो कभी किसी के काम आ सकती है। हिन्दी सिनेमा के आम कलाकारों की तथाकथित बेस्ट सेलर ‘बायोग्राफी’ के रूप में इसे देखने वाले को निराशा हो सकती है, क्योकि इसमें न तो अंतरंग सम्बन्धों की कोई सनसनी है, न ही किसी व्यक्तिगत रागद्वेष की चर्चा। चर्चा है जरूर लेकिन अमरीश पुरी के लिए व्यक्ति से अधिक महत्वपूर्ण कलाकार होते हैं। वे नरगिस, मीना कुमारी, वहिदा रहमान, नूतन, माला सिंहा की विस्तार से चर्चा करते हुए लिखते हैं, हमें याद करना चाहिए कि वे उस विशेष स्तर तक कैसे पहुंचे और उनका योगदान कैसे समय और स्थान की सीमाओं को लांघ सका।

अपनी जीवनी में अमरीश पुरी की अपने बारे में बताने से ज्यादा अपने जीवन के उन सूत्रों को खोलने में होती है जिसके बल पर वे एक सफल रंगकर्मी, सफल अभिनेता, और सफल व्यक्ति बन सके। निश्चित रूप से उनकी कोशिश पाठकों के सामने एक अनुकरणीय संसार रचने की होती है। पुस्तक के पहले खण्ड ‘संघर्ष काल’ में उनके बचपन की यादें हैं, कॉलेज के दिनों के संघर्ष हैं, संगीत और रंगमंच के प्रति उनके आकर्षण की चर्चा है। और चर्चा है एक मध्यवर्गीय नौजवान के दुविधाओं की। अभिनेता मदनपुरी के अपने और के. एल. सहगल के चचेरे भाई अमरीश पुरी अभिनेता बनने ही मुम्बई आये थे, लेकिन जब पृथ्वीराज कपूर ने उन्हें अपने नाटक में काम करने का अवसर दिया तो उन्होंने स्पष्ट कहा, ‘पापा जी, निश्चय ही मैं थियेटर करूंगा परन्तु बाद में। अभी तो मैं एक नौकरी के लिए आवेदन कर रहा हूँ।’ बगैर लाग लपेट के अमरीश पुरी स्वीकार करते हैं कि थियेटर से कभी भी समुचित आजिवीका नहीं पायी जा सकती इसीलिए उन्होंने पहली फिल्म करने के छ: वर्ष बाद तक अपनी सरकारी नौकरी नहीं छोड़ी। अपनी जीवनी मैं अमरीश पुरी खास तौर से परिवार के महत्व को रेखांकित करते हैं। बचपन में अपने मां पिता और रिश्तेदारों के योगदान के बाद अपनी पत्नी उर्मिला के साथ तक को, जिनसे उन्होंने पारिवारिक विरोध के बावजूद अन्तरजातीय विवाह किया था। सरकारी नौकरी में क्लर्क की नौकरी करते हुए मिले साथ को अमरीश पुरी ने सफलता के शिखर पर पहुंच कर भी ससम्मान कायम रखा। ‘यदि वह सब समय मेरे निर्णयों में मेरा साथ न देती तो आज मैं यहां न होता’, लगभग सवा तीन सौ पृष्ठों की किताब में पुरी कई बार उर्मिला की चर्चा पूरे सम्मान के साथ करते हैं।

‘जीवन का रंगमंच’ वैसे विरले पुस्तकों में है जिसकी कोई भी पंक्ति छूट जाने पर कुछ महत्वपूर्ण छूट जाने का अंदेशा बना रहता है। ‘संघर्ष काल’ में अपने थियेटर के दिनों को उन्होंने काफी आत्मीयता और श्रद्धा के साथ याद करने की कोशिश की है। अपने गुरू सत्यदेव दुबे और अल्काजी के बारे में तो वे स्पष्ट कहते हैं कि उनकी क्षमता को शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। अपने आपको रंगमंच की देन बताते हुए वे ये आह्वान करने से भी नहीं चूकते कि किसी भी सामाजिक वातावरण में प्रगतिशील और विचारशील लोगों का यह दायित्व है कि वे रंगमंच को अपने जीवन का अभिन्न अंग बनाये।

अमरीश पुरी अपने पुस्तक में पाठकों से अभिनय की तमाम बारिकियों को शेयर करते हैं, जो उन्होंने अपने गुरू सत्यदेव दुबे, पी.डी. शिनाय, अल्काजी के अतिरिक्त अपने जीवनानुभव से सीखी थी। ‘जब आप अपने संवाद बोलते हैं तो आप जिस कलाकार के साथ संवाद कर रहे है, उसे अपने संवाद का अर्थ समझाने का प्रयत्न भी कर रहे होते हैं। आप को उसे अपने शब्दों के माध्यम से जीतना होता है। ऐसा सीधे सीधे भी किया जा सकता है परन्तु जब आप सामान्य गतिक्रम में कुछ अतिरिक्त जोड़ते हैं तो पात्र को और भी रूचिकर बना देते हैं।’

अमरीश पुरी की विशेषता है कि वे बातों को सप्रयास नहीं कहते, कथात्मक शैली में एक के बाद एक बातों के तार जुड़ते चले जाते हैं, जो जिस सहजता से कहे जाते हैं, पाठकों के लिए उतने ही महत्वपूर्ण होते हैं। पृथ्वीराज कपूर का विराट व्यक्तित्व हम सबके आकर्षण का केन्द्र रहा, यह जानना वाकई विलक्ष्ण लगता है कि किस तरह नाटक समाप्त हो जाने के बाद ‘पापा जी दरवाजे पर झोली फैला कर खड़े हो जाते और मानवता की सेवा के लिए दान इकट्ठा करते, और जिसे वे चाहते अच्छे शगुन के रूप में उसे एक रूपया देते।’ पुरी कहते हैं, भारतीय रंगमंच पर फिर उनके जैसे भव्य व्यक्तित्व वाला कोई कलाकार नहीं हुआ। ‘गांधी’ फिल्म की जब चर्चा होती है तो पूरे विस्तार से उसके निर्माण की प्रक्रिया की चर्चा करते हुए वे हिन्दी सिनेमा के निर्माण के कमजोरियों को भी साथ-साथ रेखांकित करते चलते हैं। जब वे ऐटेनबरो को धैर्यवान निर्देशक बताते हुए यह कहते हैं कि वे कैमरे के ठीक नीचे बैठ जाते और इतनी कोमलता से साउण्ड एक्शन की घोषणा करते कि उनके शब्द प्राय: सुनाई ही नहीं देते। वे अपनी आवाज का स्तर बहुत धीमा रखते थे जिससे कि अभिनेताओं की एकाग्रता भंग न हो। लगता है अमरीश पुरी हिन्दी फिल्मकारों को अपने काम की गम्भीरता याद दिला रहे होते हैं।

‘शो बिजनेस’ खण्ड में अमरीश पुरी सिनेमा में अपने सफर को याद करते हैं। फिल्मों में देर से शुरूआत करने वाले पुरी कहते हैं कि मैं फिल्मों में शुरूआत करने से पहले एक पूर्ण और सक्षम अभिनेता बनना चाहता था। मैंने सही मार्ग का चुनाव किया। कार्य क्षेत्र में कूदने से पूर्व कला का सीखना जरूरी होता है। वे कहते है, एक डाक्टर को भी डाक्टर बनने में पांच वर्ष का समय लगता है आप को भी अपनी कीमत पर सीखना चाहिए, न कि निर्माताओं को जोखिम में डालकर। दस फिल्मों के बाद भी किशोर वय स्टार पुत्रों को अपनी स्टारडम की चाहत में निर्माताओं को जोखिम में डालते रहने की जिद को देख अमरीश पुरी के बातों की गम्भीरता समझी जा सकती है।

अमरीश पुरी समान्तर सिनेमा की परंपरा से आते हैं। इसके महत्व को पूरी तरह स्वीकार करते हुए वे कहते है, ‘यही वास्तविक सिनेमा है। जब तक चबाने को कुछ न हो आप ऐसे ही अपने होंठ नहीं काट सकते’ समान्तर सिनेमा के साथ हुए श्याम बेनेगल और गोविन्द निहालाणी की समृद्ध परम्परा को भी दर्शकों के सामने रखते हैं और ‘भारत एक खोज’ और ‘तमस’ को याद करते हुए वे टेलीविजन माध्यम की सीमा को भी रेखांकित करते हैं, ‘टेलीविजन कलाकार की रहस्यात्मकता को नष्ट कर डालता है’।

पुस्तक का अन्तिम खंड है ‘जीवित रहने की कला’, वास्तव में इसमें अमरीश पुरी एक दार्शनिक की भूमिका में दिखते हैं जो पाठकों से बेहतर जिन्दगी के सूत्र शेयर करते हैं। आश्चर्य नहीं कि हिन्दी सिनेमा के इस सबसे बुरे आदमी की जीवनी अपने पाठकों को बेहतर जिन्दगी का शऊर सीखाने वाले किसी कुन्जिका की तरह लगते हैं। निश्चित रूप से पुरी के साथ सह लेखिका ज्योति सभरवाल को भी इसका श्रेय जाता है। और सबसे बढ़कर बेहतरीन हिन्दी अनुवाद के लिए नीरू को, पराकथन में वे इस अनुवाद के लिए किये गए जिस होमवर्क का उल्लेख करती हैं, पूरी किताब की संप्रेषनीयता उसे प्रमाणित करती है। अमरीश पुरी के लिए न सही, एक बेहतर अभिनेता और बेहतर इंसान बनने के लिए जरूर पढ़ी जानी चाहिए यह किताब।

Wednesday, June 22, 2011

लोकरंग में संघर्ष गाथा

अगिन तिरिया (नाटक)

लेखक - रवीन्द्र भारती

प्रकाशक - राधाकृष्ण, दिल्ली

मूल्य - दो सौ रूपये

आओ, चलें

जल्दी करो, जल्दी करो

तिरिया सभी आ गइ हैं रचकर स्वांग

खेल शुरू होने वाला है गाय घेरने का

पानी जो हमारा उठा कर ले गए हैं बादल वादल

उन्हें बुलाने का।

बादल वादल क्या हैं? फिर क्या हैं?

रवीन्द्र भारती की ‘अगिन तिरिया’ इसी आहवान के साथ शुरू होती है। लेकिन उसके बाद लोकरंग का ऐसा विहंगम वितान भारती रचते हैं जहां हिन्दी की खरी बोली चुपचाप दम साधे खड़ी दिखती है, अपनी बारी की प्रतीक्षा में। सवाल अपनी जगह है कि लोकतत्वों की यह गहनता किसी भी कृति की स्वीकार्यता को क्या सीमित नहीं कर देती। लेकिन ‘अगिन तिरिया’ में वर्णित संघर्ष और समस्या की व्यापकता की पराकाष्ठा ही है कि हिन्दी की गुंजाइश वे बनने ही नहीं देते। ऐसा लगता है कि अपने नवीनतम नाटक ‘अगिन तिरिया’ में भारती लोक भाषाओं के सामर्थ को स्थापित करने के लिए कृत संकल्पित हों। ‘अगिन तिरिया’ हिन्दी की लोक भाषाओं के विलक्षण आस्वाद की दृष्टि से एक अभिनव कृति है, जहां आपको अपने ही शब्दों के लिए फुट नोटस भी मिलते हैं, लेकिन शब्दों का अपनापन इस फुटनोटस को नाटक के पठन की गति में बाधक नहीं बनने देते, बल्कि अपने जड़ों से जुड़ने का सुख देते हैं। बावजूद इसके ‘अगिन तिरिया’ का महत्व सिर्फ लोक भाषाओं के लिए नहीं माना जा सकता। क्यों कि निर्देशक सुमन कुमार के शब्दों में कहें तो इसकी अपनी प्रासंगिकता, व्यापक विषय वस्तु, सांकेतिक विम्ब योजना एवं दृश्य विधान, लोक रंजक पात्र एवं उनके यथेष्ट नाटकीय व्यवहार, कहीं उससे ज्यादा महत्वपूर्ण हैं।

संस्कृति कर्मी और साहित्यकार से ज्यादा एक सामाजिक आनदोलनकारी के अपनी पहचान को सार्थक करने में निरंतर सक्रिय रवीन्द्र भारती की कृति से पाठकों को यही आशा भी रहती है। उनकी पूर्व की रंग कृतियों ‘कम्पनी उस्ताद’, ‘फूकन का सुथन्ना’, ‘जनवासा’ की तरह ‘अगिन तिरिया’ भी सामाजिक सामानता के संघर्ष के बुनियादी मुद्दों को रेखांकित करती है। कथा की पृष्ठभूमि किसी अजाने से काल खण्ड की है, लेकिन कथानक का ताना बाना भारती कुछ ऐसा रचते हैं कि हरेक पाठक अपने समय से उसे रिलेट कर सकता है। शुरूआत झमटा नृत्य से होती है। झमटा, बिहार के लुप्त प्राय जनजाती थारूओं का पारंपारिक नृत्य है। पता नहीं, आधुनिक रंगमंच पर किस हद तक और किस तरह इसका निर्वाह हो पायेगा। ना भी हो, फिर भी लुप्त प्राय संस्कृति को पुर्नजीवन देने की इस कोशिश का महत्व कम नहीं हो जाता। कहीं न कहीं जरूर यह संस्कृतिकर्मियों को अपनी पारंपारिक सांस्कृति रूपों के प्र्रति जरूर हो सकती है।

‘अगिन तिरिया’ को लेखक ने तीन अंकों और बीस दृश्यों में विभाजित किया है। लेकिन निर्देशक सुमन कुमार स्पष्ट करते हैं कि शैली में लचिलापन और नाटकीयता है जिसे कल्पना की सान पर लोकरंजक एवं सांकेतिक नाटकीय मुहावरे में जीवन्त करने की पूरी संभावना दिखती है। नाटक के प्रथम खण्ड में संघर्ष की पूर्व पीठिका देखी जा सकती है। सभ्यता के हासिये पर छूट गए लोगों और कथित सभ्यता पर अ​िध्कार जमाये रखने ताकतवर लोगों के द्वंद को यहां भारती पूरी सिद्दत से रेखांकित करते हैं। लेकिन इसके लिए बिम्ब का जो वितान वे रचते हैं वह पाठकों को एक अलग ही कल्पना लोक में ले जाता है। जहां हिहड़ी-पिपड़ी भी है, वन देवी भी, बादलों को आमं​ित्रात करने के टोटके भी, सन्यासी का आतंक भी और अप्सरा का सौंदर्य भी। बहुत कुछ जो हम नहीं जानते हैं, लेकिन जिस सहजता से भारती इसे अपने कथानक में पिरोते हैं, लगता है हमें जानना चाहिए।

मात्या, सुआ, बेली, चेची, साखा, सत्यमुख, अरण्य सुभंग, तामू.... नाटक के प्रथम पृृष्ठ पर ही लगता है एक अजनबी दुनियां में हमारा प्रवेश होने वाला है। लेकिन जैसे-जैसे कथा भूमि खुलते जाती है पाठक उन्हें पहचानने लगते हैं। और नाटक की समाप्ती तक अपने आपको उसमें ढ़ूंढ़ भी सकते हैं। वास्तव में यह अपरिचित नामावली कथानक के प्रति पाठकों की आरम्भिक जिज्ञासा जगाने में सक्षम होती है। नाटक के दूसरे अंक में चार दृश्य हैं। दूसरे दृश्य में जुगनुओं के कथा के माध्यम से संघर्ष और साहस के अदभुत बिम्ब की संरचना भारती करते हैं। अंध्ेरे के खिलापफ लड़ते हुए किस तरह जुगनु तारे तक पहुंचे और पिफर वहां से रौशनी लेकर पृथ्वी तक आये। अपने आप में यह छोटी सी कथा ढ़ेर सारे निहितार्थ समेटे लगती है। ‘अगिन तिरिया’ की कथा भूमि की यह विशेषता है कि इसमें छोटे-छोटे उपकथाओं के माध्यम से बड़ी-बड़ी बातों को सहजता से कहने या कुछ हद तक समझाने की कोशिश की गर्इ है। वास्तव में यही रवीन्द्र भारती की पहचान भी है। लेकिन यह भी उल्लेखनीय है कि रवीन्द्र कला पर विचार को कभी हावी नहीं होने देते।

तीसरे अंक में नौ दृश्य हैं। इसके विभिन्न दृश्यों में आज भी प्रचलित कर्इ आदिवासी लोक उत्सवों और लोक गाथाओं की पहचान सहजता से की जा सकती है। भारती की कोशिश संघर्ष की परम्परा से हमें मुखातिब करने की होती है। इसके अंन्तिम दृश्य में मां अग्नि प्रकट होती है। वह पुरोहितों के नियंत्राण में हैं, लेकिन मात्या आती है और अग्नि छीन कर भाग जाती है। पुरोहितजन उसके पीछे भागते हैं लेकिन मात्या उनसे बचकर अग्नि और आलोक को जंगल और गांवों में बांट देते हैं। हर ओर प्रकाश पफैल जाता है। ‘अगिन तिरिया’ की आखिरी पंक्तियां हैं, ‘लगता है प्रकाश अंध्ेरे में सिर उठाये सन्यासी पुरोहितों को चिढ़ा रहा हो।’ वाकर्इ मंच पर इस दृश्य को देखना एक अदभुत अनुभव हो सकता है।

‘अगिन तिरिया’ में सात मुख्य महिला पात्राों के साथ पांच लड़कियां भी हैं, यानि कुल बारह महिला पात्रा। सतरह पुरूष पात्राों के बरक्स ये संख्या वास्तव में तत्कालीन समाज में महिलाओं के महत्व को प्रदर्शित करती है। उल्लेखनीय है कि यहां अ​िध्कांश पुरूष खल पात्रा के रूप में हैं जबकि महिलायें नायक के रूप में उनसे जुझते दिखार्इ देती हैं। निश्चित रूप से शोषितों में शोषित नारी जाती का यह नायकत्व समाज के अन्तिम व्यक्ति के साहस को रेखांकित करता है। सुआ अपनी मां से स्पष्ट कहती है, ‘इतना डर कर हम नहीं रह सकते मां। मारे जायेंगे तो मारे जायेंगे। भय के चलते आवाज नहीं कर सकते, ताली नहीं बजा सकते, हंस नहीं सकते। यह तो मुझसे नहीं होगा’ महिला पात्राों के यह हिम्मत बरबस ही राहुल सांकृत्यायन की ऐतिहासिक कृति ‘वोल्गा से गंगा’ की याद दिला जाती है। पुस्तक के आकर्षक आवरण के फ्रलैप पर लिखा भी गया है, सभ्यता के आरम्भिक काल से लेकर उत्तर आध्ुनिक भविष्योन्मुख रचना है ‘अगिन तिरिया’ जिसमें अनवरत संघर्ष की नारी गाथा संयोजित है। वास्तव में आज जब महिला सशक्तिकरण की बात नए सिरे से उठाये जाने लगी है, भारती इसके ऐतिहासिक संदर्भ को उकेरने की कोशिश करते हैं। ‘अगिन तिरिया’ स्पष्ट कहती है, महिलाओं को अ​िध्कार देने का उपकार आप नहीं जता सकते, उनके पास अपने अ​िध्कार लेने का साहस है और जजबा भी। वे दिखती कमजोर हों, लेकिन अग्नि की वाहक वही हैं।

हिन्दी में अच्छे नाटक नहीं लिखे जा रहे हैं। यह सच भी है। लेकिन यह भी सच है कि रवीन्द्र भारती पूरी रंग समझ और प्रतिब(ता के साथ नाटय लेखन को समृ( करने में जुटे हैं, अपनी कविताओं की जानी पहचानी जमीन की कीमत पर। पूर्व के नाटकों की तरह ‘अगिन तिरिया’ में भी मंच के प्रति उनकी समझ और चिन्ता प्रदर्शित होती है। दृश्य संरचना और संवाद से गुजरते हुए स्पष्ट महसूस किया जा सकता है कि ‘अगिन तिरिया’ सिर्पफ पढ़ने के लिए नहीं लिखी गइ है। इसकी सार्थकता वाकइ मंच पर भी है।



Monday, June 20, 2011

असाधारण नायक की साधारण कथा



असाधारण नायक ओमपुरी (जीवनी)

लेखक: - नंदिता सी. पुरी

प्रकाशक: - हिन्द पॉकेट बुक्स, नइ दिल्ली-3

मूल्य: - 99 रुपये

नसीर ‘प्रशंसा में’ लिखते हैं, ओमप्रकाश पुरी से ओमपुरी बनने तक की पूरी यात्रा जिसका मैं चश्मदीद गवाह रहा हूँ, एक दुबले-पतले, चेहरे पर कइ दागों वाला युवक जो भूखी आंखों और लोहे से इरादों के साथ एक स्टोब, एक सॉस पैन और कुछ किताबों के साथ एक बरामदे में रहता था। वह अंतराष्ट्रीय स्तर का कलाकार बन गया, यह काफी छोटी कहानी हो सकती है, पर फराने समय में इसके लिए वीरता की गाथाएं गायी जाती थी। ओमपुरी जैसे अभिनेता की जीवनी वीरता की गाथा भले ही न हो, एक अभिनेता के समर्पण और संकल्प की कहानी तो जरूर बन सकती थी। लेकिन ओमपुरी की धर्मपत्नी नंदिता सी. पुरी द्वारा लिखित ‘असाधारण नायक ओमपुरी’ एक सामान्य से व्यक्ति की कमजोर सी कहानी बन कर रह जाती, जिसमें उस व्यक्ति और अभिनेता को हम ढूंढते रह जाते हैं, जिसके बारे में हॉलीवुड के प्रख्यात अभिनेता पैट्रिक स्वायज स्वीकार करते हैं, ओम ने हमें दुनिया में जीना सिखाया और अपनी पहचान स्थापित करना बताया। ‘प्रशंसा में’ लिखते हैं, ओमप्रकाश पुरी से ओमपुरी बनने तक की पूरी यात्रा जिसका मैं चश्मदीद गवाह रहा हूँ, एक दुबले-पतले, चेहरे पर कइ दागों वाला युवक जो भूखी आंखों और लोहे से इरादों के साथ एक स्टोब, एक सॉस पैन और कुछ किताबों के साथ एक बरामदे में रहता था। वह अंतराष्ट्रीय स्तर का कलाकार बन गया, यह काफी छोटी कहानी हो सकती है, पर फराने समय में इसके लिए वीरता की गाथाएं गायी जाती थी। ओमपुरी जैसे अभिनेता की जीवनी वीरता की गाथा भले ही न हो, एक अभिनेता के समर्पण और संकल्प की कहानी तो जरूर बन सकती थी। लेकिन ओमपुरी की धर्मपत्नी नंदिता सी. पुरी द्वारा लिखित ‘असाधारण नायक ओमपुरी’ एक सामान्य से व्यक्ति की कमजोर सी कहानी बन कर रह जाती, जिसमें उस व्यक्ति और अभिनेता को हम ढूंढते रह जाते हैं, जिसके बारे में हॉलीवुड के प्रख्यात अभिनेता पैट्रिक स्वायज स्वीकार करते हैं, ओम ने हमें दुनिया में जीना सिखाया और अपनी पहचान स्थापित करना बताया।

धर्म पत्नी होने के नाते नंदिता सी. पुरी को सहुलियत थी ओम पुरी के जीवन की छोटी से छोटी बातों को जान लेने की। लेकिन यही सहुलियत एक जीवनीकार की मुसीबत बन गइ। ऐसा लगता है कि वे तय ही नहीं कर पायीं कि एक अंतराष्ट्रीय स्तर के अभिनेता की जीवनी में किन बातों का समावेस किया जाना अनिवार्य है और किन्हें छोड़ दिया जाना। अम्बाला में जन्में ओमपुरी के आठ भाइ बहनों के साथ एक कुत्त्ो की भी चर्चा इस जीवनी में है जो रेल से कट मरा था। ओमपुरी के बचपन की विडम्बना वाकइ द्रवित करती है जब भूखमरी से गुजरते उनके परिवार के साथ, पेट चलाने के लिए पांच वर्ष के उम्र में पटरियों के किनारे जले कोयले चुनने और सात वर्ष की उम्र में चाय की दुकान पर काम करने की भी जानकारी मिलती है। यह भी जानकारी मिलती है कि किस तरह चाय दुकान के मालिक ने उनकी मजबूरी की कीमत उनकी मां से वसुलनी चाही और किस तरह खिलौने के लिए पैसे खाने के लिए रख लिये जाते थे। आज के ओमपुरी के विकाश से यदि ये खण्ड जुड़ पाते तो इसकी सार्थकता समझ में आती। लेकिन इन जानकारियों में नंदिता जी न तो संवेदनशीलता जाहिर कर पाती हैं न ही सार्थकता।

इस असाधारण नायक की जीवनी का एक लम्बा खण्ड ‘वह प्रेम था’ शीर्षक से है जिसकी शुरूआत नंदिता उनके 14 वर्ष की उस घटना के साथ करती हैं, जब छत पर सो रही अपनी छोटी मामी को उसने ‘छूने’ की कोशिश की थी। उसके बाद 55 वर्ष की प्रौढ़ा नौकरानी से चले शारीरिक सम्बन्ध से लेकर तलाकशुदा एक बच्चे की मां सीमा से विवाह तक और नंदिता तक पहुंचने के बीच के दर्शन भर प्रेम कथाओं के विवरण इस जीवनी में शोभायमान है। ओमफरी के व्यक्तित्व के एक नये पहलु को नंदिता रेखांकित करती हैं जब वे लिखती हैं कि ओम शादी पर विश्वास नहीं करते थे।

ओमपुरी जैसे अभिनेता की जीवनी जब सामने आती है तो उम्मीद होती है कि एक अभिनेता के विकास से पाठक रू-ब-रू हो सकेंगे। उसके अभिनय की तकनीक समझ सकेंगे। उसके अंदर छिपी संवेदनशीलता के कारणों की तलाश कर सकेंगे। अभिनय के प्रति उनके समर्पण और कैरियर के संघर्ष को समझ सकेंगे। जीवनी डायरी नहीं होती। जब किसी व्यक्ति की जीवनी लिखी जाती है तो उसका एक छोटा सा उद्देश्य भी होता है कि किसी न किसी रूप में वह व्यक्तित्व पाठकों के लिए प्रेरक बन सके। लेकिन नंदिता सी. पुरी भुल जाती हैं कि वे ओमपुरी की आत्मकथा नहीं लिख रही, जीवनी लिख रही हैं। जिस तरह से उन्होंने छोटे-छोटे निरर्थक घटना की डिटेलिंग की है वह दृश्य का सुख तो देती है लेकिन ओमफरी को समझने में जरा भी सहायक नहीं होती। आश्चर्य होता है जब नंदिता ‘सिटी ऑफ जॅाय’ शीर्षक के अन्तरगत ओमपुरी से अपनी पहली मुलाकात और प्रेम विवाह की चर्चा करती हैं, और यह भी चर्चा करती हैं कि किस तरह अमेरिका के एक मॉल में वे अपने आप को संभाल नहीं पायीं और किस तरह अमेरिका की सड़क पर एक कार ने उन्हें हल्की सी टक्कर मार दी थी। कर्इ स्थानों पर नंदिता अपने बारे में इस कदर मुखर हो जाती हैं कि यह तय करना मुश्किल हो जाता है कि हम ओमफरी की जीवनी पढ़ रहे हैं या नंदिता की।

इस महान अभिनेता की जीवनी का जो अंश सबसे महत्वफर्ण हो सकता था उसे अंतिम के तीन पृष्ठों में समेट दिया गया है जहां ओमपुरी कलाकारों को अभिनय के टिप्स बताते हैं। ‘फिल्म में शारीरिक क्षमता से अलग मानसिक तौर पर जागरूक होना भी जरूरी है। यह किसी कलाकार के लिए अहम बात है कि वह किरदार के बारे में कितना सोंच समझ सकता है ताकि उसका रोल वास्तविक, आप-पास के माहौल के अनुसार तथा सामाजिक और राजनीतिक रूप से जागरूक दिखे।’ काश, ऐसे टिप्स बात-चीत के नोट्स के बजाय गंभीरता से लिखे गये हो। फस्तक में लगभग हजार शब्दों का ओमफरी का भी एक लेख संकलित है, ‘भारतीय सिनेमा का अवलोकन’, लेकिन इस अवलोकन में पाठकों को ऐसा कुछ नहीं मिल पाता जो उन्होंने स्वयं अवलोकन न किया हो। स्पॉट ब्वाय की पीढ़ा से लेकर धार्मिक सदभाव तक। लगभग 35 वर्ष फिल्म इण्डस्ट्री में बीता चुका कलाकार भी यदि यही रेखांकित कर रहा हो तो वाकइ संदेह होता है उनकी अवलोकन क्षमता पर।

लेकिन उस व्यक्ति की अवलोकन क्षमता पर कैसे संदेह किया जा सकता है जिसकी भारतीय ही नहीं ब्रिटिश निर्देशक भी अद्वितीय प्रतिभा, व्यवसायिकता और किसी भी किरदार के लिए मेहनत करने के लिए उनके जज्बे की प्रसंशा करते रहे हो। ओमफरी की जीवनी विश्व के किसी भी अभिनेता के लिए प्रेरक हो सकती थी, बशर्ते उसे सिर्फ बिकने के नजरीये से नहीं लिखा जाता। लेकिन विडम्बना है कि लिखे जाने से पूर्व ही यह तय कर लिया जाता है ‘निश्चित रूप से यह किताब खूब बिकेगी।’ आश्चर्य नहीं कि नंदिता सी. पुरी को सफाइ देनी पड़ती है ‘यह एक जीवनी से भी ज्यादा है।’ निश्चय ही जीवनी से भी ज्यादा इसे एक पत्नी के अंतरंग संस्मरण के रूप में पढ़ा जाना चाहिए।

शबाना आजमी कहती हैं कि ओम एक वृक्ष की भांति है जिसकी जड़े पंजाब में हैं और शाखाएं इतनी तेजी से फैलती जा रही हैं कि पश्चिम भी शर्मा जाय। ओम ने अपनी सफलताओं को लेकर कभी खेलने की कोशिश नहीं की। काश! उनकी जीवनी पढ़ते हुए भी हम ऐसा कह पाते।