Tuesday, July 12, 2011

प्रसारण मीडिया का इतिहास और मुल्यांकन

पुस्तक      -    भारत में जनसंचार और प्रसारण मीडिया
लेखक      -    मधुकर लेले
मुल्य       -    तीन सौ रूपये
प्रकाशक    -    राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा. लि.
                दरियागंज, नइ दिल्ली-2

              जनसंचार के सूत्र उपनिषद से ग्रहण करते हुए मधुकर लेले लिखते हैं, ‘सबकी अंत: प्रेरणाए हृदय और मन में एकरूपता हो तभी समाज सुचारू रूप से चलेगा। इसके लिए जरूरी है कि व्यक्तियों के बीच संवाद, संचार, संप्रेषण अविरल चलता रहे’। जनसंचार शायद सभ्यता की अनिवार्यता रही है। या कह सकते हैं जनसंचार के विकास और सभ्यता के विस्तार में अन्योन्याश्रय संबंध रहे हैं। किसी किसी रूप में वह जनसंचार का ही एक रूप होगा जिसमें मानव को बाकी जीवों से अलग होने की प्रेरणा दी होगी। जनसंचार को विस्तार देते हुए लेले लिखते हैं, ‘वर्तमान सांस्कृतिक परिवेश में संचार शब्द को कर्इ अर्थों और संदर्भों में लिया जाता है। जिस किसी रूप में भावों का आदान-प्रदान हो, संवाद चले, चर्चा हो, चाहे वह प्रत्यक्ष हो, परोक्ष हो, सभा में हो, मेले में हो, लिखत हो या पढ़त में, बेतार के जरिए हो, जैसे फोन रेडियो, टी.वी., इंटरनेट सबकुछ संचार के दायरे में माना जाता है’।
              एक दशक से अधिक समय तक आकाशवाणी-दूरदर्शन के वरिष्ठ उप महानिदेशक के पद पर रहने का अनुभव मधुकर लेले की फस्तक ‘भारत में जनसंचार और प्रसारण मीडिया’ के हरेक पृष्ठ पर दिखता है। आरंभिक पृष्ठों पर ही महात्मा गांधी, पं. नेहरू, सरदार पटेल और इदिरा गांधी की आकाशवाणी-दूरदर्शन से जुड़ी तस्वीरें पुस्तक को एक दस्तावेजी महत्व देती हैं। जनसंचार और प्रसारण मीडिया नाम के अनुरूप ही लेले ने पुस्तक को दो खण्डों में विभाजित किया है, पहले खण्ड में जनसंचार सिद्धांत और माध्म का विवेचन है, दूसरे खण्ड प्रसारण मीडिया विमर्श में मूलत: भारत में टेलिविजन प्रसारण के विस्तार और उसके सामाजिक प्रभावों-सरोकारों की चर्चा की गई है।
                   जनसंचार सिद्धांत और माध्य का विवेचन करते हुए मधुकर लेले क्रमबद्ध ढंग से जनसंचार के सिद्धांत और उसके व्यवहारिक स्वरूप पर समय-समय पर हुए विमर्श को रेखांकित करते हैं। यह जानना वाकइ दिलचस्प लगता है कि आगामी खतरे को भांपते हुए 1974 में ही बोगोटा में हुए यूनेस्को के सम्मेलन में यह कहा गया था कि स्वतंत्र व्यवसाय के रूप में मीडिया के निजी स्वामित्व और प्रबंध को रोका जाय, क्योंकि इससे समाज में असंतुलन और विकास के बजाय उपभोग पर ध्या ज्यादा केन्द्रित होता जा रहा है। लेकिन यूनेस्को का प्रभाव 80 का दशक आते-आते तक पूर्णत: तिरोहित हो गया। डॉ. लेले मानते हैं कि वास्तव में संचार टेक्नोलोजी में इस दौर में जो अभूतपूर्व प्रगति हुइ उसने ‘विकास के लिए जनसंचार’ की समझ के स्थान पर उसे एक लाभकारी उद्योग के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया और अब उसे भूमंडलीकरण विस्तार के साथ जोड़ कर देखा जाने लगा है। इसके प्रभाव की चर्चा करते हुए लेले अपनी पुस्तक के दूसरे खण्ड में इंदिरा गांधी को उद्रित करते हैं, ‘मीडिया आज पूरे विश्व को एक साथ भौतिक समृद्धि के भड़कीले और लुभावने दृश्य दिखा रहा है जबकि दुनिया के अधिकांश लोगों को उनकी निहायत जरूरी चीजें भी नसीब नहीं हैं। लेले भले ही कुछ नहीं कहते, लेकिन यह टिप्पणी अपने आप में सवाल खड़े करती है कि आखिर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी यह किसे संबोधित कर रही थीं? और जब दूसरों को वे आहवान कर रही थीं तो आखिर खुद उनकी क्या भूमिका थी? सवाल यह भी है कि इंदिरा गांधी के नाम पर चल रही कांग्रेस आज उनकी वेदना को किस हद तक महसूस कर पा रही है? जनसंचार के बदलते स्वरूप को रेखांकित करते हुए लेले लिखते हैं, अब विज्ञापन का मुख्य उद्ददेश्य वस्तु की जानकारी से ज्यादा उसके लिए चाहत पैदा करना है। हालांकि अब इस बात को स्थापित करने के लिए किसी तर्क की जरूरत नहीं कि ‘विज्ञापनों में अतिरंजना’ और ‘नैतिकता के लिए कोर्इ खास गुंजाइश नहीं रही’ लेकिन लेले यहां मेरीलैण्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर बेंजामिन बी. बारबरा की पुस्तक का उल्लेख आवश्यक समझते हैं, जिसमें विस्तार से स्पष्ट किया गया है कि भूमंडलीकरण के दौर में विज्ञापनों के जरिए बाजार की शक्तियां बच्चों को भ्रष्ट और वयस्कों में बचकानी सोंच पैदा कर रही हैं। वाकइ इससे असहमत होने की कोइ गुंजाइश नहीं बनती जब लेले कुछ विज्ञापन निर्माताओं को उद्धृत करते हुए लिखते हैं कार्यक्रम तो बहाना है, दर्शक को आज उत्तेजना ;थ्रिल चाहिए और वो है विज्ञापनों के चटपटे और तेज स्वाद में।
              मधुकर लेले की धर्म, दर्शन और संस्कृति में रूचि फस्तक में मुखर होती दिखती है जब भारत में जनसंचार प्रणालियों की चर्चा करते हुए वेद से आरंभ करते हुए यह कहते हैं कि जनसंचार का पहला संगठित रूप फराणों के काल में ही दिखायी देने लगा था। इस संदर्भ में वे नारद मुनि के साथ महाभारत की युद्ध में संजय की दिव्य दृष्टि और अर्जून श्री कृष्ण संवाद का भी उल्लेख करते हैं। लेले चाणक्य के अर्थशास्त्र में जनसंचार के स्वरूप की तलाश करते हैं और नाटकों और उसके भाषायी बदलाव में भी। वे मानते हैं, आज जबकी टेक्नोलॉजी आधारित जनसंचार के अनेक प्रभावी माध्य लोकमानस पर अपना मजबूत पकड़ बना चुकें हैं, परम्परागत जनसंचार साधन फिर भी अपनी अहमियत रखते हैं। इसका आधार वे भारत की विविधता में तलाश करते हुए लिखते हैं, इसे स्वीकार्य किए बगैर भारत में कारगर रूप से जनसंचार नहीं हो सकता। आश्चर्य नहीं कि आंचलिक विशेषताओं का उपयोग आज जनसंचार की अनिवार्यता बन गइ है।
              मधुकर लेले जनसंचार माध्य के तकनीकी विकास पर श्रुति ;सुनी-सुनायी से शुरूआत करते हुए क्रमवार कागज पर छपायी, टेलीग्राफ, फोटोग्राफी, चलचित्र, रेडियो, टेलीविजन, उपग्रह से प्रसारण सेवा की चर्चा करते हुए भारत में इसके विकास की प्रक्रिया को खास तौर से रेखांकित करते हैं। 20 अगस्त 1921 के भारत में रेडियो के पहले प्रसारण से लेकर वाल्टर काउफमैन द्वारा वायलिन पर बनायी आकाशवाणी के सिग्नेचर ट्यून की जानकारी कई पाठकों के लिए नई हो सकती है। वे आकाशवाणी के कई कार्यक्रमों के बारे में जानकारी देते हैं, अच्छा लगता ‘आकाशवाणी’ से लेकर ‘विविध भारती’ और ‘अमृत वर्षिणी’ जैसे नामकरण की पूर्वपीठिका भी पाठकों को मिल पाती। आकाशवाणी के कार्यक्रमों के नामकरण में कायम शास्त्रीयता वाकइ उसकी धरोहर है।
              आकाशवाणी के साथ ही लेले दूरदर्शन के विकास की भी कहानी कहते हैं। इन सेवाओं से उनका व्यक्तिगत जुड़ाव रहा है। जाहिर है एक आत्मीयता भी दिखती है और तकनीकी जानकारियां देने में पूर्णता भी। लेकिन मीडिया के निजी हाथों में जाने की स्थिति के प्रति उनका असंतोष स्पष्ट दिखायी देता है। वे अपना निष्कर्ष देते हुए लिखते हैं, भारतीय मीडिया और खासकर प्रसारण मीडिया आज एक संक्रमण के दौर से गुजर रहा है। उसपर कर्इ तरह के दबाव हैं, जैसे राजनीतिक पक्षकारिता, लाभकारी उद्योग बनने की आकांक्षा, मीडिया में गलाकाटू प्रतिस्पर्द्धा और भूमंडलीकरण के प्रभाव में समाचारों की प्रस्तुति में आयी स्वछंदता। लेकिन उनके अनुभव उन्हें निरास नहीं होने देते। हालांकि जनसंचार की अपनी-अपनी परिभाषाए गढते विभिन्न प्रसारण माध्यमों की बाढ़ को झेल रहे दर्शकों के लिए उनकी उम्मीद से सहमत होना थोड़ा मुश्किल होता है कि वर्तमान दिशा भ्रम के इस दौर से मीडिया अपनी गौरवशाली परम्परा और स्वविवेक के सहारे खुद को शीध्र उबार लेगा। वास्तव में यह स्तक सिर्फ तथ्यात्मक जानकारी नहीं देती, जनसंचार के प्रसारण मीडिया को आत्मअवलोकन के लिए भी तैयार करती है। सबसे बढ़कर पाठकों को यह समझ देने की कोशिश करती है कि वे क्या देख रहे हैं और क्या उन्हें देखना चाहिए।

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