Saturday, August 13, 2011

सत्य की तलाश में तारकोवस्की



अनंत में फैलते बिम्ब
अनुवाद : इंदुप्रकाश कानूनगो
संवाद प्रकाशन
आर्इ-499, शास्त्रीनगर, मेरठ-250004
मूल्य : 80 रूपये (पेपर बैक)
‘लेव तोलस्तीय निस्संदेह बूनिन के समान दोषरहित शैलीकार नहीं थे। उनके उपन्यासों में लालित्य और परिपूर्णता के उन लक्षणों का अभाव था जो बूनिन की कहानियों में पाए जाते हैं।’ फिल्मकार आन्द्रेई तारकोवस्की की इस तरह की विद्वतापूर्ण निर्भिक टिप्पणियों से गुजरने के बाद यह रहस्य नहीं रह जाता कि कोई फिल्मकार चार लघु फिल्में, एक टेलीविजन वृतचित्र और मात्र सात फीचर फिल्में बनाकर किस तरह कला जगत में अमर हो जा सकता है। दोस्तोवस्की, बोरिस पास्तरनॉक, अलेक्जेंडर हर्जन, गोल, शेक्सपीयर, सिसेरो जैसे नामों का एक फिल्मकार की डायरी में संदर्भ सहित उल्लेख हमारे फिल्मकारों को किंचित विस्मित कर सकता है कि आखिर फिल्म बनाने के लिए ‘अपनी सांस्कृतिक और ऐतिहासिक परम्पराओं की घनी गहराइयों से’ इस कदर जुड़ने की क्या जरूरत है? लेकिन हमारे सामने भारतीय सिनेमा के गुणात्मक रूप से पिछड़ने के कारण स्पष्ट हो जाते हैं।
वास्तव में अपनी सांस्कृतिक-साहित्यिक परम्पराओं से पूर्णतया निरपेक्ष हमारे फिल्मकार रंगीन तस्वीरों का जखीरा तो बढ़ाते चले गये, सिनेमा नहीं बना सके। जिसके बारे में तारकोवस्की कहते हैं, ‘सिनेमा को जीवन ही के अपने ही उपायों द्वारा फिल्म पर जीवन दर्ज करना चाहिए, उसे यथार्थ के सच्चे बिम्बों के साथ क्रियाशील होना चाहिए।’ लय को सिनेमा का प्रमुख सृजनात्मक तत्व मानते हुए तारकोवस्की कहते हैं, मैं किसी दृश्य को रचता नहीं हूँ, मेरा प्राय: यही मानना है कि सिनेमा का अस्तित्व जीवन ही के बिम्बों के साथ पूर्णरूपेण तादातम्य कर लेने पर निर्भर है।
‘अनंत में फैलते बिम्ब’ की खासियत है कि अपने क्षीण से कलेवर में जिस पूर्णता से यह एक महान फिल्मकार के व्यक्तित्व, कृतित्व और उनके चिंतन को समेटने की कोशिश करती है, उतनी ही जीवंतता से सिनेमा के प्रति भारतीय फिल्मकारों के नजरिए पर भी विमर्श के लिए आमंत्रित करती है। ‘‘लोग नहीं समझते- इस सूत्र से मैं हमेशा खफा रहता हूँ। इसका क्या मतलब? लोगों की राय की जिम्मेवारी स्वयं अपने उफपर कौन ले सकते हैं? उनकी ओर से कौन ये घोषणाएं कर सकता है मानो वह आबादी का बहुमत बता रहा हो?.... क्या किसी ने कभी ऐसा सर्वेक्षण किया या किंचित ईमानदार प्रयास किया कि खोजे कि लोगों की सच्ची रूचियां क्या है?’’ दर्शक और सर्जक के सम्बन्धों पर विचार करते हुए तारकोवस्की जब इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं तो लगता है सीधे भारतीय फिल्मकारों से संबोधित हों, जो हर फ्रलॉप बनाकर ये घोषणा करने से नहीं चूकते कि मैं तो आम जनता के लिए फिल्में बनाता हूँ।
तारकोवस्की का अपने दर्शकों पर अटूट विश्वास था, वे मानते थे कि कला के प्रति संवेदनशीलता किसी मनुष्य को जन्म से ही प्रदत्त है। शायद इसीलिए तत्कालीन कम्यूनिष्ट सोवियत शासन के प्रतिबंधों और असहयोग से निराश तारकोवस्की फिल्म निर्माण से सोच कर भी हाथ नहीं खींच पाते, यह कहते हुए कि मुझे इतने कठोर निर्णय लेने का कोई हक नहीं, और यह भी कि जब दर्शकों में कुछेक ऐसे हैं जो निष्पक्ष, सरल और उदारमना हैं तथा जिन्हें मेरी फिल्मों की जरूरत है, जब मैं अपने काम पर लगे रहने को बाध्य हूँ, चाहे उसकी कितनी भी कीमत मुझे चुकानी पड़े। काश! अपने हारे हुए भारतीय कला फिल्मों के महारथी भी ये महसूस कर पाते।
इतनी महत्वपूर्ण पुस्तक में संपादक के नाम की कमी खटकती है, यदि अनुवादक इंदुप्रकाश कानूनगो को ही संपादक मान लें तो वाकई वे बधाई के पात्र हैं कि इस संक्षिप्त कलेवर में तारकोवस्की की तकनीकी कुशलता, वैचारिक प्रतिबद्धता और सबसे बढ़कर उनकी संवेदनशीलता को पूर्णता से प्रदर्शित कर पाते हैं। पांच लघु खण्डों में विभाजित पुस्तक के ‘आवृत क्षण अनावृत’ खण्ड में 1970 से 1986 के बीच तारकोवस्की के डायरी के कुछ पन्ने संग्रहित हैं जो एक कलाकार के मन की परतों में झांकने का तो अवसर देती ही है, एक प्रबुद्ध फिल्मकार से भी परिचित कराती है। ‘‘ हो सकता है मैं स्वतंत्रता के विचार से मनोग्रस्त हूँ। मैं तब शारीरिक दृष्टि से कष्ट महसूस करता हूँ जब मेरे पास स्वतंत्रता नहीं होती है। स्वतंत्रता स्वयं के भीतर किसी न किसी प्रतिष्ठा का अहसास कराने की योग्यता है।’’ लेकिन तत्कालीन कम्यूनिष्ट सोवियत शासन के लिए शायद स्वतंत्रता की चाह से बढ़कर अपराध और कोई था भी नहीं, चाहे वह चाह अंतराष्ट्रीय फिल्म महोत्सबों में कई बार देश को प्रतिष्ठा दिलाने वाले तारकोवस्की ही क्यों न हों! आश्चर्य नहीं कि तारकोवस्की को देश छोड़ने का कठोर निर्णय ही नहीं लेना पड़ा बल्कि कैंसर की बीमारी के दौरान भी अपने बेटे को मिलने नहीं आने देने पर वे एक सामान्य व्यक्ति की तरह बिलखते भी दिखते हैं, ‘कसाई है, राक्षस है वे, धरती उन्हें निगल क्यों नहीं जाती।’
‘काल उत्कीर्णन’ शीर्षक से प्रस्तुत खण्ड में फिल्म तकनीक और भाषा पर तारकोवस्की की महत्वपूर्ण टिप्पणियां हैं जो स्पष्ट करती है कि उन्होंने सिनेमा मात्र एक तकनीक की तरह सीखा नहीं था बल्कि एक कला और जीवनशैली की तरह आत्मसात किया था। व्यवहारिक उदाहरणों के साथ जिस तरह फिल्म बिम्ब, संपादन, पटकथा, अभिनय, संगीत जैसे तकनीकी पहलुओं को वे संप्रेष्य बना देते हैं कि सिनेमा का सारा तिलस्म ढेर हो जाता है। निर्देशन की जटिलताओं को विश्लेषित करते हुए वे कहते हैं, ‘मुद्दे की बात यह है कि निर्देशक के काम की गहरार्इ और अहमियत इन्हीं शर्त्तों से परखी जा सकती है जो जानने का अवसर दे कि वह क्या है जिसने उसे किसी चीज का फिल्मांकन करने की ओर रूझाया है, वही प्रेरणा ही निर्णायक है। साधन और विधि तो महज प्रासंगिक है।’
तारकोवस्की की माँ मारिया इवानोवना प्रतिभाशाली अभिनेत्री थी और पिता आर्सेनिय तारकोवस्की सम्मानित कवि थे। तारकोवस्की ने दोनों को ही अपने फिल्म का हिस्सा बनाए रखा। माँ अभिनेत्री के रूप में तो पिता के कविताओं का प्रयोग उन्होंने प्राय: अपनी सभी फिल्मों में किया। प्रस्तुत पुस्तक में उन कुछ कविताओं के साथ आंद्रेई तारकोवस्की की भी कविताओं से गुजरना एक रोचक अनुभव देता है।
तारकोवस्की की पहली फिल्म ‘इवान का बचपन’ में चित्रित ‘चोट खयी हुई मासूमियत की अत्यंत गंभीर, कठोर और सिर चकराती सूरत’ ने उन्हें वेनिस में भले हीं ‘गोल्डन लायन’ दिलवा कर अन्तर्राष्ट्रीय पहचान दे दी हो, लेकिन इनकी संवेदनशीलता ने सोवियत व्यवस्था के कान खड़े कर दिए। उनके अपने ही देश में विचाराधारात्मक मतभेद इतने तीखे हो गए कि 1966 में ‘आंद्रेई रूबल्योव’ के बाद उनके लिए वहां फिल्म निर्माण कठिन हो गया। प्रस्तुत पुस्तक में तमाम कठिनाइयों के बावजूद मुल्क दर मुल्क गुजरते हुए बनी उनकी सातों फिल्मों पर अक्वा रेनो की महत्वपूर्ण समीक्षाएं संग्रहित है जो फिल्मों के वैचारिक पक्ष के साथ तकनीकी बारिकियों को भी जानने का अवसर देती है।
सत्य को सिनेमा में सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व मानते हुए वे कहते हैं, ‘जब कोई कलाकार सत्य की खोज करना छोड़ दे तो समझो उसके काम पर कोई जबर्दस्त अनर्थकारी प्रभाव पड़ेगा ही।’ ‘अनंत में फैलते बिम्ब’ तारकोवस्की के इस सत्य की तलाश की यात्रा में हिन्दी पाठकों को सहभागी बनने का दुर्लभ अवसर देती है।

3 comments:

  1. पहली बार आपका ब्लोग पढ्ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ. पुस्तक पढे बिना पुस्तक से परिचित हो गई. धन्यवाद सर.

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  2. सत्य को सिनेमा में सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व मानते हुए वे कहते हैं, ‘जब कोई कलाकार सत्य की खोज करना छोड़ दे तो समझो उसके काम पर कोई जबर्दस्त अनर्थकारी प्रभाव पड़ेगा ही।’
    Sadhuvaad Vinod Ji. Bhartiya cinema ke liye aapke kandhe par vahi jimmevaariyan hain jo kabhi Aandre Bajan ke kandhon par thin.

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