Friday, September 9, 2011

हिन्दी सिनेमा के सौंदर्यशास्त्र की तलाश



भारतीय सिने सिद्धांत
लेखक-अनुपम ओझा
राधाकृष्ण प्रकाशन,दिल्ली-5
मूल्य-295 रुपये

जनवरी 1935 के ‘विशाल भारत’ में बनारसी प्रसाद चतुर्वेदी ने सिनेमा की चर्चा करते हुए लिखा था, ‘हम उन कठमुल्लाओं के सख्त विरोधी हैं, जो सिनेमा मात्र को त्याज्य मान बैठे हैं, क्यों कि कठमुल्लापन स्वयं एक ऐसा व्यवसाय है, जो सिनेमा व्यवसाय से कम भयंकर नहीं।’ बाद में इन्हीं बातों को विस्तार देते हुए कमलेश्वर ने कहा, ‘सिनेमा की शक्ति को सब पहचानते हैं, परन्तु साहित्यिक अहंकार और संकुचित सोच के कारण, इस नये माध्यम को आत्मसात करने से घबराते हैं - वे ये भूल जाते हैं कि सम्यक्-सांस्कृतिक परिवर्तन के लिए शक्तिशाली माध्यमों की जरूरत होती है। जो इस क्षेत्र में आते हैं, वे अधिकाश गीत या संवाद लेखन के लिए आते हैं। वे सिनेमा या फिल्म की आन्तरिक तकनीकी रचनात्मकता को आत्मसात करने से कतराते हैं। सच तो यह है कि हमारे लेखक बहुत सुस्त, आराम पसंद और दकियानूसी हैं। उन्हें आप अच्छे सिनेमा की दुनिया तैयार करके दे दीजिए, तो वे खरामा-खरामा एहसान करते हुए चले आएंगे और यहां भी गोष्ठियों और विमोचनों की बीमार परम्परा शुरू करने में देर नहीं लगाएंगे - क्यों कि वे परम्परावाद के खिलाफ तो बोल सकते हैं, परन्तु परम्परा को बदलने में शामिल होने से कतराते हैं। यहां पर गोर्की का स्मरण स्वाभाविक है जिनकी समीक्षात्मक टिप्पणियां सिनेमा के इतिहास का महत्वपूर्ण दस्तावेज है। अंग्रेजी सिनेमा में तो ग्राहम ग्रीन, जार्ज बनार्ड शॉ, हेमिंग्वे, विलियम फॉकनर, आर्सन वेल्स, समरसेट मॉम जैसे महान लेखकों ने फिल्म लेखन में शामिल होकर रचनात्मक प्रोफेशनल लेखकों की एक संस्कारशील जमात खड़ी कर दी, जिसने पश्चिमी सिनेमा को सांस्कृतिक कथ्य और सार्थक प्रतिवाद का माध्यम बना दिया। इसके ठीक विपरीत हिन्दी साहित्य की यह विडम्बना रही कि सिनेमा ही नहीं, इसने अपनी कविता, कहानी, आलोचना के बाद कला जगत की सारी विधाओं को त्याज्य समझा, संगीत, नृत्य, चित्रकला.... यहां तक कि एक हद तक रंगमंच को भी। हिन्दी का रंगमंच जब ‘एक’ बेहतर नाटक के लिए बिसूरता दिखता है तो जाहिर है साहित्य के एजेंडे में रंगमंच है ही नहीं। निर्मल वर्मा जैसे लेखक हिन्दी साहित्य में आज विरले है जो स्वीकार कर सकते हैं कि उन्हें उर्जा तो साहित्येतर कला विधाओं से मिलती है। हिन्दी समाज को इसका दो तरफा घाटा उठाना पड़ा, एक तरफ साहित्य अपनी सीमा में सिकुड़ता, आने वाली नई चुनौतियों के सामने लाचार होता, हाशिये पर चला गया। दूसरी तरफ शेष कला विधाएं वैचारिकता के अनुशासन से मुक्त अराजक होती चली गई। ऐसे में डॉ. अनुपम ओझा की ‘भारतीय सिने सिद्धान्त’ को रचने या विकसित करने की कोशिश हिन्दी समाज की सांस्कृतिक शून्यता के प्रति चिंतनशील किसी भी व्यक्ति को संतोष दे सकती है। हालांकि डॉ. अनुपम ‘देहरी’ शीर्षक से लिखी भूमिका में ही अपनी सीमा स्पष्ट करते हैं, ‘यह किताब प्रश्नों और जिज्ञासाओं का संकलन है। इसमें निष्कर्ष की उम्मीदें हैं, उत्तर नहीं, जो उत्तर ढ़ूढ़ने के आग्राही हों उनका आह्वान किया जाता है कि वे हमकदम बनें।’ अन्यथा नहीं कि छ: अध्यायों में कला और सिनेमा पर गम्भीर विमर्श के बावजूद लेखक किसी निष्कर्ष पर पहुंचने की जिद नहीं करते। हां, विमर्श की जमीन उपलब्ध कराते हुए यह आशा अवश्य व्यक्त करते हैं कि दादा साहेब फाल्के ने बीसवीं सदी के आरम्भ में भारतीय सिनेमा को व्याकरण के सांचे में कसने के लिए जो सिने सिद्धान्त की आवश्यकता महसूस की थी, वह इक्कीसवी सदी के आरम्भ में शायद प्रतिपादित हो सके। ‘कला और सिनेमा : विकासात्मक अध्ययन’, विषय की पूर्व-पीठिका के रूप में देखा जा सकता है, जिसमें कला की विभिन्न अवधारणाओं के साथ चलचित्र के कि विकास को रेखांकित किया गया है। प्रस्तुत अध्याय में लेखक तत्कालीन प्रभावी कला माध्यमों लिपि, चित्रकला, रंगमंच, दृश्य काव्य और श्रव्य, पाठ्य काव्य इत्यादि में सिनेमा की जमीन ढ़ूंढ़ने की कोशिश करते हैं। सहज ही वे इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं, ‘सिनेमा ने पूर्ववर्ती सभी ललित कलाओं, उपयोगी कलाओं तथा कविता, नाटक, उपन्यास, कहानी आदि साहित्यिक विधाओं को अपने भीतर समाहित कर विज्ञान और व्यवसाय के समुचित सन्तुलन से अपना स्वरूप निर्मित किया।’ ‘रंगमंच और सिनेमा’ पर चर्चा करते हुए लेखक इसे रंगमंच से सर्वाधिक प्रभावित तो बताते हैं, लेकिन क्यों? इसकी गहनता में जाने की जरूरत नहीं समझते। भगवतशरण उपाध्याय जब कहते हैं कि नाटकों की सही परिपाटी भी प्रस्तुत न हुई थी कि सिनेमा ने उसपर छापा मार कर अधिकार कर लिया। सिनेमा ने संसार भर के रंगमंच पर अपना विस्तृत प्रभाव डाला था, परन्तु और देशों ने अपने नाटकीय साहित्य की सजीवता, अभिनय की प्रवीणता आदि से अपने रंगमंच की रक्षा कर ली पर हमारा उठता हुआ रंगमंच सहसा बैठ गया। यहां पर स्वाभाविक जिज्ञासा उठती है, क्या इसके लिए सिनेमा को दोषी करार दिया जा सकता है? दूसरे अध्याय ‘सिनेमा, कला सिनेमा : भेदपरक मूल्यांकन’ में एक नितान्त काल्पनिक आधार पर सिनेमा को वर्गीकृत करने की कोशिश में स्वाभाविक है लेखक का भटकाव दिखने लगता है। छ: पंक्ति पूर्व जहां इस वर्गीकरण की शुरूआत वे सत्तर से मानते हैं, वहीं तुरंत इसे साठ के दशक से स्थापित करने की कोशिश करते हैं। हिन्दी कला सिनेमा से पहले, लोकप्रिय सिनेमा और कला सिनेमा, सिने कला व्यवसाय, विज्ञान और फार्मूला, फार्मूला और पटकथा, कला भाषा और लोकप्रियता जैसे उपशीर्षकों के अंतर्गत विमर्शित विषय पर लेखक का पूर्वाग्रह स्पष्ट महसूस किया जा सकता है, इस खण्ड में वी. शान्ताराम, राज कपूर, गुरुदत्त, महबूब जैसे फिल्मकारों पर चर्चा वांछित थी, आखिर कौन से वर्गीकरण में रखी जायेगी इनकी फिल्में। विजय अग्रवाल जब कहते हैं, ‘कलात्मक फिल्मों का जन्म अपने समय की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक स्थितियों के गर्भ से हुआ है।’ तो बात मानी जा सकती है, लेकिन जब वे कहते हैं कि व्यवसायिक फिल्मों की चकाचौंध के बीच परिष्कृत रुचियों वाली फिल्में बनाने का साहस करना कम जोखिम भरा काम नहीं, तो बात समझ में नहीं आती। आखिर कितनी भी परिष्कृत फिल्में बनायी जाएं व्यवसाय तो उन्हें करना ही होगा। कला फिल्में जब आज दम तोड़ती दिख रही है तो उसका एक बड़ा कारण उनका व्यवसाय न कर पाना है। तदन्तर, दर्शकों के प्रति निरपेक्षता भी रही है। ‘ कला सिनेमा की विकास यात्रा’ शीर्षक से एक अलग अध्याय भी पुस्तक में संयोजित है। ‘भारतीय सिने सिद्धान्त’ की तलाश में लगा लेखक क्यों कला सिनेमा के सिद्धान्तों तक अपने आपको सीमित कर लेता है, यह विचारणीय है। लेखक इसे सत्तर के दशक में प्रस्फुटित एक विशेष सुनियोजित संरचना और आन्दोलन की उपज मानता है। लेखक के पूर्वाग्रह का आधार तब स्पष्ट होता है जब वे साहित्य को लोकप्रिय सस्ता साहित्य, लोकप्रिय कलात्मक साहित्य और जनपक्षधर शास्त्रीय साहित्य में वर्गीकृत करने की कोशिश करते हैं : ‘भाई मेरे, यह ‘जनपक्षधर’ शब्द बड़ा विकट है, इसने अज्ञेय और जैनेन्द्र कुमार तक को साहित्य से बेदखल करने की कोशिश की, निर्मल वर्मा को भी। वी. शान्ताराम की सिर्फ ‘डॉ. कोटनीस की अमर कहानी’ ही महान नहीं थी, ‘नवरंग’ भी महान थी। महबूब की ‘मदर इण्डिया’ महान थी तो के. आसिफ की ‘मुगले आजम’ भी। एक अध्याय ‘कला सिनेमा की कथा पटकथा : संरचनात्मक विशिष्टताएं’ पर केन्द्रित है। बेहतर होता यदि इसे इसके उपशीर्षक ‘हिन्दी सिनेमा में पटकथा’ पर ही केन्द्रित किया जा सकता। निश्चय ही पटकथा किसी भी फिल्म का आधार होती है, कई वरिष्ठ फिल्मकार मानते है आधी फिल्म तो टेबुल पर ही बनती है। बावजूद इसके यह भी सच्चार्इ है हिन्दी सिनेमा का सबसे हीन प्राणी पटकथा लेखक है। प्रस्तुत अध्याय में पटकथा लेखक के शिल्प, फिल्म निरूपण, सिने कथा और पटकथा के लिए किये जाने वाले रचनात्मक समझौते पर भी विमर्श है। इस अध्याय में कई सैद्धान्तिक तथा तकनीकी जानकारियां भी उपलब्ध करायी गयी है। जिसमें शॉट, सीन और सिक्वेन्स के मिलने से पटकथा बनती है, जैसी जरूरी जानकारी भी है और पटकथा अकसर लम्बे पन्नों या जिल्द पन्नों पर लिखी जाती है, जैसी गैर जरूरी जानकारी भी। ‘सिनेमा-समीक्षा, कला सिनेमा और उसकी जरूरत’ पर केन्द्रित अध्याय में मुख्य रूप से हिन्दी में सिने पत्रकारिता की स्थिति पर चर्चा की गर्इ है। समृद्ध अतीत के बावजूद दरिद्र वर्तमान सिनेमा विद्या के प्रति हमारे नकारात्मक सोंच को ही प्रदर्शित करता है। यह जानकर सुखद आश्चर्य होता है किसी समय प्रेमचंद, महादेवी वर्मा, वृंदावनलाल वर्मा, भगवतीचरण वर्मा, अज्ञेय जैसे साहित्यकारों ने सिनेमा पर हस्तक्षेप करने की जरूरत महसूस की थी, आज हम बात करने तक की जरूरत महसूस नहीं करते। ‘पटकथा’ के बंद होने के बाद ‘कथाचित्र‘ सामने आता है तो संतोष होता है, लेकिन इस अहसास के साथ करोड़ों हिन्दी भाषियों की जरूरत को किस हद तक पूरा कर सकेगा यह। डॉ. ओझा की इस सलाह से कोई भी सहमत होना चाहेगा कि ‘फिल्म विकास निगम’ या फिर ‘फिल्म समारोह निदेशालय’ को ही हिन्दी में फिल्म पर एक स्तरीय पत्रिका निकालने का दायित्व संभालना चाहिए। पुस्तक के समापन अध्याय में एक ‘भारतीय सिने सिद्धांत’ अनुसंधान की कोशिश की गई है। वाकई एक ऐसी विद्या के लिए सिद्धांत की संरचना एक कठिन कार्य है जो शमा जैदी के अनुसार, ‘जिस भाषा में है उस भाषा की है ही नहीं।’ वाकइ यह जानकारी कई लोगों को विस्मित कर सकती है कि हिन्दी कला सिनेमा की पटकथा अमूमन रोमन में लिखी जाती है। सत्यजीत राय (शतरंज के खिलाड़ी), मणि रत्नम (दिल से) जैसे अहिन्दी भाषी फिल्मकार जब रोमन में लिखी पटकथा का सहारा लेते हैं तब तो यह सह्य लगता है, लेकिन जब साहित्यकार के रूप में भी प्रतिष्ठित जावेद अख्तर कहते हैं, ‘मैं गांवों में कभी नहीं रहा और सच्चाई यही है कि मैंने कभी हिन्दी नहीं पढ़ी। मैं हिन्दी लिख भी नहीं सकता’ तो हिन्दी सिनेमा के प्रति फिल्मकारों की इमानदारी पर संदेह स्वाभाविक है। डॉ. अनुपम इस अध्याय में एक जरूरी सवाल उठाते हैं, ‘हिन्दी में बनी हिन्दी जमीन की फिल्में कितनी हैं। बासु भट्टाचार्या, श्याम बेनेगल, सईद मिर्जा, गोविन्द निहलाणी की कला फिल्मों की भाषा तो हिन्दी है किन्तु क्या चरित्र और वातावरण भी हिन्दी प्रदेश के हैं? यहां अडूर गोपालकृष्णन की टिप्पणी गौरतलब है, ‘भाषा के साथ संस्कृति का अटूट सम्बन्ध है, और उसमें रद्दोबदल करके फिल्म की विश्वसनीयता पर आंच नहीं आने देना चाहिए।’ इसके ठीक विपरीत हिन्दी सिनेमा में भाषा तो होती है, संस्कृति कहीं नहीं होती। इसका क्या कारण हो सकता है। तमाम उदाहरणों के बावजूद लेखक इसे स्पष्ट नहीं कर पाये। निश्चय ही डॉ. अनुपम ओझा की तरह हमें भी हिन्दी सिनेमा के लिए किसी पाणिनी, किसी भरत का इन्तजार रहेगा। लेकिन 230 पृष्ठों में फैली इस पुस्तक से गुजरने के बावजूद पाठक के मन में यह सवाल कायम रह जाता है कि आखिर हिन्दी सिनेमा का विकास हिन्दी जमीन पर क्यों न हो सका? मराठी भाषी क्षेत्र सुदूर महाराष्ट्र में इसके विकसित होने की क्या वजह थी? डॉ. शुरू से अंत तक लेखक की कोशिश तो ‘हिन्दी’ सिनेमा के लिए सिने सिद्धांत ढ़ूंढ़ने की होती है, फिर ‘भारतीय सिने सिद्धांत’ क्यों? जो भी हो? उम्मीद की जा सकती है कि अनुपम की पहल हिन्दी साहित्य में सिनेमा पर कायम हिचक को दूर करने में सक्षम होगी। (पुस्तक वार्ता के अंक मई-जून 2003 में प्रकाशित)

Tuesday, August 23, 2011

राजकपूर सृजन प्रक्रिया



लेखक - जय प्रकाश चौकसे
राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली
मूल्य - 500/-
‘‘पृथ्वी थियेटर में शो के बाद पृथ्वी राजकपूर के कमरे में दिग्गजों की महफिल लगती थी। राजकपूर एक कोने में बैठकर विद्वानों की बातें सुना करते थे। सभा के अन्त में पृथ्वीराज सारी बातें अत्यन्त सरल शब्दों में प्रस्तुत करते थे और उनकी इस योग्यता का राजकपूर पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। राजकपूर ने बहुत गौर से देखा कि किस प्रकार उनके पिता अपनी मनपसन्द थीम पर लेखकों से नाटकों की पटकथा लिखवाते थे।... सबके जाने के बाद साफ सफाई कराके राजकपूर ऑपेरा हाउस से माटूंगा की ओर पैदल रवाना होते थे।... उतनी रात बस या ट्रेन मिलने का सवाल नहीं था। और टैक्सी के लिए पैसे नहीं होते थे। अत: सारे वार्तालाप की जुगाली करते हुए राजकपूर अलसभोर में घर पहुंचते थे।’’ निश्चित रूप से राजकपूर की सृजन प्रक्रिया के आधार की तलाश यहीं से हो सकती है। लेकिन इस आधार तक पहुंच पाना सामान्य फिल्म समीक्षकों के लिए कतई संभव नहीं हो सकता था। आम तौर पर सफलता के साथ सितारों का आभामण्डल इतना बड़ा और इतना आलोकित हो जाता है कि उसे भेद पाना सहज ही संभव नहीं हो पाता। फिल्म अध्येता जयप्रकाश चौंकसे अपनी पुस्तक ‘राजकपूर सृजन प्रक्रिया’ में यदि उसे भेद पाते हैं तो यह राजकपूर के साथ उनके लम्बे सानिध्य और सिनेमा के प्रति उनकी गहन दृष्टि को प्रदर्शित करता है। आश्चर्य नहीं कि बेहतरीन सौंदर्यबोध के साथ प्रकाशित ‘राजकपूर सृजन प्रक्रिया’ में राजकपूर की आत्मीय दुनिया की झलक ही नहीं मिलती, उनकी विराट सफलता के पीछे उनके संघर्ष को भी करीब से जानने समझने का अवसर मिलता है।
गौर तलब है कि राजकपूर ने 22 वर्ष की उम्र में जब ‘आग’ के निर्माण का बीड़ा उठाया था तो उनकी पीठ पर सूरज बड़जात्या, अदित्य चोपड़ा और करण जौहर की तरह अपने पिता का हाथ नहीं था। पृथ्वी राजकपूर इसपर यकीन ही नहीं करते थे। उन्हें शायद आभास था कि हिन्दी सिनेमा को यदि खरा सोना देना है तो उसे आग में तपाना ही पड़ेगा। ‘आग’ की परिकल्पना को साकार करने के लिए राजकपूर को खून पसीने ही नहीं जलाने पड़े, अपनी पत्नी के जेवर तक बेचने पड़े। चौकसे लिखते हैं, शादी के छ: महीने बाद पत्नी से गहने मांगना हिम्मत का काम था, और पत्नी के गहने दे देना और भी हिम्मत का।
चौकसे रेखांकित करते हैं कि राजकपूर के लिए प्रत्येक फिल्म युद्ध और प्रेम की तरह थी। और उन्होंने एक योद्धा की तरह काम भी किया। जितनी मुसिबतें ‘आग’ में आई थी, उतनी ही मुसीबत ‘बॉबी में भी आई। चौकसे राजकपूर के प्रेम और युद्ध की इस गाथा को इक्कीस शीर्षकों के अन्तर्गत व्याख्यायित करने की कोशिश करते हैं। जिसमें उनके संगीत, तकनीक, कथानक के साथ उनके समकालीन सामाजिक ऐतिहासिक राजनैतिक संदर्भों को और सबसे बढ़कर राजकपूर के व्यक्तित्व को काफी आत्मीयता से वे समझने की कोशिश करते हैं पुस्तक में ‘आवारा’ और ‘जागते रहो’ पर खास चर्चा भी मिलती है। निश्चित रूप से विचारक राजकपूर की ये दोनों प्रतिनिधि फिल्में रहीं हैं।
अपने सक्रिय 41 वर्षों में राजकपूर ने साढ़े अठारह फिल्में बनायी, चौकसे ‘हीना’ को उनकी आधी फिल्म मानते हैं। क्योंकि गीत संगीत के साथ उसकी पटकथा के चार संस्करण भी उन्होंने तैयार कर लिए थे। फिल्म के प्रति राजकपूर की जिजिविसा का अन्दाजा इसी से लगाया जा सकता है कि अपने आखिरी दिनों तक वे सक्रिय थे। ‘अजन्ता’, ‘घुंघट के पट खोल’, ‘परमवीर चक्र’, ‘रिश्वत’, ‘मैं और मेरा दोस्त’ तथा ‘जोकर भाग-2’ की पटकथायें अमूमन तैयार थीं जिनपर फिल्में नहीं बन सकीं। राजकपूर की फिल्मों के निर्माण में प्रेरणा के चार बिन्दू को चौकसे रेखांकित करते हैं, प्रेम करने की असिमित शक्ति, प्रेम में असफल होने पर रोने का साहस तथा अदम्य महात्वाकांक्षा। अपने पिता पर अगाध श्रद्धा और जनजात संस्कार। राजकपूर अपने पिता का इतना आदर करते थे कि उनके सामने कभी सिगरेट और शराब का सेवन नहीं किया। हर फिल्म के प्रारम्भ में इश्वर से आर्शिवाद लेने के बाद वे पिता का आर्शिवाद लेते रहे। और आर. के. के प्रतीक चिन्ह के पहले पृथ्वी राज के पुजा का दृश्य परदे पर आता रहा। राजकपूर के यही पारीवारिक संस्कार थे जो उनके तमाम चर्चित अचर्चित प्रेम प्रसंगों के बावजूद उनके परिवार को जीवन पर्यन्त एक अटूट रिश्ते में बांधे रख सका। रिश्तों के प्रति राजकपूर का सम्मान इसी से समझा जा सकता है कि जो कामकाजी रिश्ते उन्होंने बनाये उसका भी जीवन भर निर्वाह किया। चाहे वे राधू करमाकर हों या ख्वाजा अहमद अब्बास, शैलेन्द्र, शंकर जयकिशन या मुकेश। सिनेमा में ही नहीं व्यक्तिगत जीवन में भी वे एक दूसरे के पूरक रहे। चौकसे लिखते हैं राजकपूर ने कभी भी अपनी आत्मा को वातानूकुलित कमरे में कैद नहीं किया। छोटे-मोटे सड़क छाप भोजन के ठियों पर नियमित रूप से उन्होंने आम आदमी से अपना सम्पर्क कभी टूटने नहीं दिया। अपने ड्राइवर, खानसामा और स्टूडियो के साधारण कर्मचारियों से वे रोजमर्रा की बात महेशा करते थे। चौकसे उनके व्यक्तित्व की जमीन तलाशते हुए पृथ्वी थियेटर के नाटकों तक पहुंचते हैं। वे लिखते हैं, वही उनकी सच्ची पाठशाला थी। पृथ्वी में मंचित नाटक सकुन्तला, आहूति, पठान, दीवार, सबसे लोकप्रिय थे। इन्हें सभी नाटकों में धार्मिक सौहाद्र, मानवीय करूणा, प्रेम और देश भक्ति की भावनायें समान रूप से मौजूद थी और सोदेश्यता के साथ भरपूर मनोरंजन था। राजकपूर का व्यक्तित्व और फिल्में सबसे अधिक इन्हीं से प्रभावित रहीं हैं।
राजकपूर के फिल्मों की सोदेश्यता बार-बार उन्हें साम्यवादी मानने को बाध्य करती रही। खासकर ‘जागते रहो’, ‘आवारा’, ‘बूट पॉलिस’ और ‘श्री 420’ जैसी फिल्मों ने तो साम्यवादी देशों में भी राजकपूर को एक विशिष्ट पहचान दी। जय प्रकाश चौकसे काफी बारिकी से इसे विश्लेषित करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुचते हैं कि राजकपूर के लिए पहली और अन्यतम चीज थी सिनेमा-और सिनेमा के इस महान प्रेमी के लिए राजनीतिक विचार धारा बहुत महत्वपूर्ण नहीं थी। वास्तव में राजकपूर सिनेमा में मानवीय मूल्यों के पक्षधर थे। फिल्म समालोचक हेमचन्द्र पठारे को रेखांकित करते हुए चौकसे स्थापित करते हैं कि राजकपूर मात्र शो मैन नहीं थे। जिस निर्माता की फिल्मों में सिर्फ भव्यता हो उन्हें शो मैन कहा जाता है। राजकपूर की फिल्मों में आम आदमी के दुख-दर्द की बात है। राजकपूर की फिल्मों में केन्द्रिय विचार बहुत महान होता था। और उन्होंने कभी तकनीक या भव्यता को अपनी कथा पर हावी होने नहीं दिया। इसी लिए शो मैन कहकर हम राजकपूर के निर्देशन क्षमता का मूल्य कम आंकते हैं।
राजकपूर वास्तव में भविष्य दृष्टा थे। उनकी फिल्मों को, पात्रों को, दृश्यों को एक-एक कर याद करने की कोशिश करें तो सहज ही जय प्रकाश चौकसे के शब्दों में कहें तो इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि उनकी व्यक्तिगत पीडा विराट सामाजिक स्वरूप लेकर प्रार्थना बनी और परदे पर छा गई। इसी लिए राजकपूर का आम भारतीय आदमी से सीधा संवाद बना रहा। यह कोर्इ आश्चर्य नहीं कि आसानी से रूस में रूसी और इटली में इटालियन समझलिए जाने वाला खुबशुरत व्यक्तित्व ‘तीसरी कसम’ के हीरामन को भी उतनी ही सहजता से साकार कर देता है। क्या यह सिर्फ अभिनय हो सकता है?
‘राजकपूर सृजन प्रक्रिया’ में बार-बार एहसास होता है कि राजकपूर के बहाने जय प्रकाश चौकसे हिन्दी सिनेमा के बदलते स्वभाव और नजरिए को आईना दिखाने की कोशिश कर रहे हैं। यही है जो इस पुस्तक को थोड़ा और ज्यादा महत्वपूर्ण बनाती है। राजकपूर की जीवन को टटोलते हुए यह पुस्तक हिन्दी सिनेमा के एक पूरे काल खण्ड को, या कहें सबसे गौरवशाली काल खण्ड को मिशाल के रूप में सामने रख हमें आत्म अवलोकन को अवसर देती है।

Saturday, August 13, 2011

सत्य की तलाश में तारकोवस्की



अनंत में फैलते बिम्ब
अनुवाद : इंदुप्रकाश कानूनगो
संवाद प्रकाशन
आर्इ-499, शास्त्रीनगर, मेरठ-250004
मूल्य : 80 रूपये (पेपर बैक)
‘लेव तोलस्तीय निस्संदेह बूनिन के समान दोषरहित शैलीकार नहीं थे। उनके उपन्यासों में लालित्य और परिपूर्णता के उन लक्षणों का अभाव था जो बूनिन की कहानियों में पाए जाते हैं।’ फिल्मकार आन्द्रेई तारकोवस्की की इस तरह की विद्वतापूर्ण निर्भिक टिप्पणियों से गुजरने के बाद यह रहस्य नहीं रह जाता कि कोई फिल्मकार चार लघु फिल्में, एक टेलीविजन वृतचित्र और मात्र सात फीचर फिल्में बनाकर किस तरह कला जगत में अमर हो जा सकता है। दोस्तोवस्की, बोरिस पास्तरनॉक, अलेक्जेंडर हर्जन, गोल, शेक्सपीयर, सिसेरो जैसे नामों का एक फिल्मकार की डायरी में संदर्भ सहित उल्लेख हमारे फिल्मकारों को किंचित विस्मित कर सकता है कि आखिर फिल्म बनाने के लिए ‘अपनी सांस्कृतिक और ऐतिहासिक परम्पराओं की घनी गहराइयों से’ इस कदर जुड़ने की क्या जरूरत है? लेकिन हमारे सामने भारतीय सिनेमा के गुणात्मक रूप से पिछड़ने के कारण स्पष्ट हो जाते हैं।
वास्तव में अपनी सांस्कृतिक-साहित्यिक परम्पराओं से पूर्णतया निरपेक्ष हमारे फिल्मकार रंगीन तस्वीरों का जखीरा तो बढ़ाते चले गये, सिनेमा नहीं बना सके। जिसके बारे में तारकोवस्की कहते हैं, ‘सिनेमा को जीवन ही के अपने ही उपायों द्वारा फिल्म पर जीवन दर्ज करना चाहिए, उसे यथार्थ के सच्चे बिम्बों के साथ क्रियाशील होना चाहिए।’ लय को सिनेमा का प्रमुख सृजनात्मक तत्व मानते हुए तारकोवस्की कहते हैं, मैं किसी दृश्य को रचता नहीं हूँ, मेरा प्राय: यही मानना है कि सिनेमा का अस्तित्व जीवन ही के बिम्बों के साथ पूर्णरूपेण तादातम्य कर लेने पर निर्भर है।
‘अनंत में फैलते बिम्ब’ की खासियत है कि अपने क्षीण से कलेवर में जिस पूर्णता से यह एक महान फिल्मकार के व्यक्तित्व, कृतित्व और उनके चिंतन को समेटने की कोशिश करती है, उतनी ही जीवंतता से सिनेमा के प्रति भारतीय फिल्मकारों के नजरिए पर भी विमर्श के लिए आमंत्रित करती है। ‘‘लोग नहीं समझते- इस सूत्र से मैं हमेशा खफा रहता हूँ। इसका क्या मतलब? लोगों की राय की जिम्मेवारी स्वयं अपने उफपर कौन ले सकते हैं? उनकी ओर से कौन ये घोषणाएं कर सकता है मानो वह आबादी का बहुमत बता रहा हो?.... क्या किसी ने कभी ऐसा सर्वेक्षण किया या किंचित ईमानदार प्रयास किया कि खोजे कि लोगों की सच्ची रूचियां क्या है?’’ दर्शक और सर्जक के सम्बन्धों पर विचार करते हुए तारकोवस्की जब इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं तो लगता है सीधे भारतीय फिल्मकारों से संबोधित हों, जो हर फ्रलॉप बनाकर ये घोषणा करने से नहीं चूकते कि मैं तो आम जनता के लिए फिल्में बनाता हूँ।
तारकोवस्की का अपने दर्शकों पर अटूट विश्वास था, वे मानते थे कि कला के प्रति संवेदनशीलता किसी मनुष्य को जन्म से ही प्रदत्त है। शायद इसीलिए तत्कालीन कम्यूनिष्ट सोवियत शासन के प्रतिबंधों और असहयोग से निराश तारकोवस्की फिल्म निर्माण से सोच कर भी हाथ नहीं खींच पाते, यह कहते हुए कि मुझे इतने कठोर निर्णय लेने का कोई हक नहीं, और यह भी कि जब दर्शकों में कुछेक ऐसे हैं जो निष्पक्ष, सरल और उदारमना हैं तथा जिन्हें मेरी फिल्मों की जरूरत है, जब मैं अपने काम पर लगे रहने को बाध्य हूँ, चाहे उसकी कितनी भी कीमत मुझे चुकानी पड़े। काश! अपने हारे हुए भारतीय कला फिल्मों के महारथी भी ये महसूस कर पाते।
इतनी महत्वपूर्ण पुस्तक में संपादक के नाम की कमी खटकती है, यदि अनुवादक इंदुप्रकाश कानूनगो को ही संपादक मान लें तो वाकई वे बधाई के पात्र हैं कि इस संक्षिप्त कलेवर में तारकोवस्की की तकनीकी कुशलता, वैचारिक प्रतिबद्धता और सबसे बढ़कर उनकी संवेदनशीलता को पूर्णता से प्रदर्शित कर पाते हैं। पांच लघु खण्डों में विभाजित पुस्तक के ‘आवृत क्षण अनावृत’ खण्ड में 1970 से 1986 के बीच तारकोवस्की के डायरी के कुछ पन्ने संग्रहित हैं जो एक कलाकार के मन की परतों में झांकने का तो अवसर देती ही है, एक प्रबुद्ध फिल्मकार से भी परिचित कराती है। ‘‘ हो सकता है मैं स्वतंत्रता के विचार से मनोग्रस्त हूँ। मैं तब शारीरिक दृष्टि से कष्ट महसूस करता हूँ जब मेरे पास स्वतंत्रता नहीं होती है। स्वतंत्रता स्वयं के भीतर किसी न किसी प्रतिष्ठा का अहसास कराने की योग्यता है।’’ लेकिन तत्कालीन कम्यूनिष्ट सोवियत शासन के लिए शायद स्वतंत्रता की चाह से बढ़कर अपराध और कोई था भी नहीं, चाहे वह चाह अंतराष्ट्रीय फिल्म महोत्सबों में कई बार देश को प्रतिष्ठा दिलाने वाले तारकोवस्की ही क्यों न हों! आश्चर्य नहीं कि तारकोवस्की को देश छोड़ने का कठोर निर्णय ही नहीं लेना पड़ा बल्कि कैंसर की बीमारी के दौरान भी अपने बेटे को मिलने नहीं आने देने पर वे एक सामान्य व्यक्ति की तरह बिलखते भी दिखते हैं, ‘कसाई है, राक्षस है वे, धरती उन्हें निगल क्यों नहीं जाती।’
‘काल उत्कीर्णन’ शीर्षक से प्रस्तुत खण्ड में फिल्म तकनीक और भाषा पर तारकोवस्की की महत्वपूर्ण टिप्पणियां हैं जो स्पष्ट करती है कि उन्होंने सिनेमा मात्र एक तकनीक की तरह सीखा नहीं था बल्कि एक कला और जीवनशैली की तरह आत्मसात किया था। व्यवहारिक उदाहरणों के साथ जिस तरह फिल्म बिम्ब, संपादन, पटकथा, अभिनय, संगीत जैसे तकनीकी पहलुओं को वे संप्रेष्य बना देते हैं कि सिनेमा का सारा तिलस्म ढेर हो जाता है। निर्देशन की जटिलताओं को विश्लेषित करते हुए वे कहते हैं, ‘मुद्दे की बात यह है कि निर्देशक के काम की गहरार्इ और अहमियत इन्हीं शर्त्तों से परखी जा सकती है जो जानने का अवसर दे कि वह क्या है जिसने उसे किसी चीज का फिल्मांकन करने की ओर रूझाया है, वही प्रेरणा ही निर्णायक है। साधन और विधि तो महज प्रासंगिक है।’
तारकोवस्की की माँ मारिया इवानोवना प्रतिभाशाली अभिनेत्री थी और पिता आर्सेनिय तारकोवस्की सम्मानित कवि थे। तारकोवस्की ने दोनों को ही अपने फिल्म का हिस्सा बनाए रखा। माँ अभिनेत्री के रूप में तो पिता के कविताओं का प्रयोग उन्होंने प्राय: अपनी सभी फिल्मों में किया। प्रस्तुत पुस्तक में उन कुछ कविताओं के साथ आंद्रेई तारकोवस्की की भी कविताओं से गुजरना एक रोचक अनुभव देता है।
तारकोवस्की की पहली फिल्म ‘इवान का बचपन’ में चित्रित ‘चोट खयी हुई मासूमियत की अत्यंत गंभीर, कठोर और सिर चकराती सूरत’ ने उन्हें वेनिस में भले हीं ‘गोल्डन लायन’ दिलवा कर अन्तर्राष्ट्रीय पहचान दे दी हो, लेकिन इनकी संवेदनशीलता ने सोवियत व्यवस्था के कान खड़े कर दिए। उनके अपने ही देश में विचाराधारात्मक मतभेद इतने तीखे हो गए कि 1966 में ‘आंद्रेई रूबल्योव’ के बाद उनके लिए वहां फिल्म निर्माण कठिन हो गया। प्रस्तुत पुस्तक में तमाम कठिनाइयों के बावजूद मुल्क दर मुल्क गुजरते हुए बनी उनकी सातों फिल्मों पर अक्वा रेनो की महत्वपूर्ण समीक्षाएं संग्रहित है जो फिल्मों के वैचारिक पक्ष के साथ तकनीकी बारिकियों को भी जानने का अवसर देती है।
सत्य को सिनेमा में सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व मानते हुए वे कहते हैं, ‘जब कोई कलाकार सत्य की खोज करना छोड़ दे तो समझो उसके काम पर कोई जबर्दस्त अनर्थकारी प्रभाव पड़ेगा ही।’ ‘अनंत में फैलते बिम्ब’ तारकोवस्की के इस सत्य की तलाश की यात्रा में हिन्दी पाठकों को सहभागी बनने का दुर्लभ अवसर देती है।

Sunday, July 31, 2011

धुनों के संसार की विस्मयकारी यात्रा

पुस्तक का नाम - धुनों की यात्रा
लेखक - पंकज राग
प्रकाशक - राजकमल प्रकाशन, दिल्ली
पृष्ठ - 750


पंकज राग के साथ ‘धुनों की यात्रा’ पर निकलना किसी भी व्यक्ति के लिए एक अविस्मरणीय अनुभव बन सकता है। कुछ ऐसा ही जैसे शाहजहां खुद ताजमहल की सुंदरता दिखाने आपके साथ हों, रेशे-रेशे से वाकिफ, जिसने संगमरमर की पंखुड़ियों को सिर्फ देखा नहीं, जिया है। जो भी आप जानना चाहते हैं और जो भी आपको जानना चाहिए, सारी जानकारियां पूरी आत्मीयता से, विश्वसनीयता से और विस्तार के साथ देने को आतुर। शाहजहां और ताजमहल से इस पुस्तक की तुलना इसलिए भी प्रासंगिक है कि हमें अपने हर सफर के पहले लगता है, भला ताजमहल में क्या देखना, देखा तो है। लेकिन देखने के बाद लगता है कितना कुछ शेष था देखने को। यह अधूरापन कायम ही रहता है क्यों कि शाहजहां हमारे साथ नहीं हो सकते। सुखद है कि ‘धुनों की यात्रा’ में पंकज राग हमारे साथ ही हैं।
1931 से 2005 तक के संगीतकारों पर केन्द्रित पंकज राग की पुस्तक ‘धुनों की यात्रा’ वास्तव में एक ऐसी दुनियां में प्रवेश का अनुभव देती है, जिसके बारे में हममें से अधिकांश आश्वस्त हैं कि उसे या तो सबकुछ मालूम है या फिर मालूम करने की जरूरत भी नहीं। लेकिन इस जानी पहचानी दुनियां की बातें जैसे-जैसे पंकज पलटने लगते हैं हमारी जिज्ञासा विस्मय में बदलने लगती है। बड़े आकार के लगभग 750 पृष्ठों की इस भरी पूरी पुस्तक से गुजरते हुए शायद ही कहीं पर यह अहसास होता है कि इसे हम क्यों जाने, बल्कि पृष्ठ दर पृष्ठ यही अहसास बना रहता है कि हम इसे अभी तक क्यों नहीं जान पाए।
पांचवें दशक के पूर्व को आरंभिक दौर मानते हुए पंकज राग भी हिन्दी सिनेमा के इतिहास की इस जानकारी को फख्ता करते हैं कि सिनेमा और संगीत का संयोग मूक फिल्मों के दौर में भी था लेकिन तकनीकी रूप से सिनेमा संगीत के बिना ध्वनि के अवतरण के बाद ही मानी जा सकती है। पहली बोलती फिल्म ‘आलम आरा’ के संगीतकार फिरोज शाह मिस्त्री को पहला संगीतकार मानते हुए पंकज लिखते है, ‘पहला हिन्दुस्तानी गाना इसी फिल्म में था,. जिसे गाया था फिल्म के अभिनेता डब्ल्यु एम खान ने। एक फकीर के रोल में डब्ल्यु एम खान ने गाया, ‘दे दे खुदा के नाम पे प्यारे, ताकत है गर देने की, कुछ चाहे अगर मांग ले मुझसे, हिम्मत हो गर लेने की। वे आगे ये भी जानकारी देते हैं, मात्र एक तबले और एक हारमोनियम के साथ सृजित इस गीत का रेकार्ड नहीं बना था। पंकज राग के इस यात्रा की यही विशेषता है, वे गाइड की तरह झलकियां नहीं दिखाते, इतिहासकार की तरह विषय में प्रवेश का अवसर देते हैं।
‘‘मैंने प्रयास किया है कि न केवल संगीतकारों की जीवनी के विवरण दिए जाएं और न सिर्फ उनकी फिल्मी संगीत सभा को ही रेखांकित किया जाए, बल्कि उनकी संगीत प्रवृति की विश्लेषणात्मक विवेचना भी हो। रचनाओं में शास्त्रीय रागों और तालों का असर, लोकरंग का प्रभाव या अन्य बारीकियां तथा गीतों की विशिष्टताओं का भी वर्णन करने का प्रयास मैंने किया है।’’ इन संगीतकारों के संगीत की विशेषताओं को बदलते सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक संदर्भ के साथ देखने की भी कोशिश की गर्इ है। भूमिका में किए अपने निवेदन का निर्वाह करते पूरी फस्तक में पंकज देखे जा सकते हैं। आश्चर्य नहीं कि शंकर, एहसान, लाय की तिकड़ी को वे भूमंडलीकरण और नई सदी की बदली आर्थिक-सामाजिक प्रवृतियों के प्रतिनिधि के रूप में रेखांकित करते हैं। आज के दौर के सबसे प्रतिभाशाली संगीतकार के रूप में स्वीकार करते हुए पंकज लिखते हैं, ‘एक ओर आज की एन. आर. आइ. संस्कृति की इच्छाओं और मनोभावों के अनुकूल उपयुक्त वस्तुनिष्ठ संगीत दिया है तो साथ ही अंतर्राष्ट्रीय प्रवृतियों को भारतीय संदर्भ में स्थित करने के उनके प्रयास ने आधुनिक भौतिकवादी आकांक्षाओं को आपाधापी और व्यक्तित्व से लेकर सामाजिकता के बाजारीकरण के बीच मूल्यों और भावनाओं की क्षणभंगुरता से उभरे दर्द और उदासी को भी कुछ जमीन अवश्य दी है। ‘कल हो न हो’ जैसी चर्चित फिल्म ही नहीं पंकज की विस्तारित दृष्टि से अभिष्ट संगीतकार की शायद ही कोर्इ अल्पचर्चित कृति भी बच पाती है।
हिन्दी साहित्य का इतिहास दशकों के विभाजन को बहुत मान्यता नहीं देती लेकिन यह भी सच है कि जब प्रवृतियां बहुत स्पष्ट विभाजित नहीं हो तो अध्ययन का सबसे बेहतर तरीका दशकों को ही आधार बनाना होता है। पंकज राग भी दशकों के विभाजन पर यकीन करते हैं। हालांकि भूमिका में पंकज ने स्वयं ही इस विभाजन की दिक्कतों का भी उल्लेख करते हुए कहते हैं, कुछ संगीतकार को तो पहचान मिलने में ही दो दशक लग गए, तो कुछ की सक्रियता किसी खास दशक के आर-पार रही। पंकज पहचान को आधार बनाकर बढ़ते हैं, आर. डी. बर्मन की चर्चा करते हुए वे स्पष्ट कहते हैं उनकी आधुनिक शैली ने अपनी छाप सातवें दशक में ही छोड़ दी थी, पर उसका व्यापक प्रभाव अगले दशक में होने के कारण उनकी चर्चा आठवें दशक की प्रवृतियों वाले आलेख के बाद की गई है।
पंकज राग की ‘धुनों की यात्रा’ में पांचवे से लेकर नवें दशक की प्रवृतियों को विश्लेषित किरते अलग-अलग आलेख हैं। तदुपरांत प्रत्येक दशक के साथ उस दौर के चुने हुए संगीतकारों पर विस्तार से चर्चा की गर्इ। लेकिन इस ‘चुने हुए’ की संख्या का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि छठे दशक के अंतर्गत 39 संगीतकारों पर आलेख हैं, जबकि बड़े-बड़े संगीत के जानकार के लिए छठे दशक में चित्रगुप्त, वसंत देसाई, सचिन देव वर्मन, शंकर जयकिशन, मदन मोहन, ओ. पी. नैयर, सलिल चौधरी, रवि और रौशन के नामों से आगे बढ़ना कठिन हो जाता है। विषय के प्रति पंकज के समर्पण को इसी से समझा जा सकता है कि 39 संगीतकारों पर लिखने के बावजूद वे रूकते नहीं हैं, उस दशक के अन्य छूटे हुए संगीतकारों की चर्चा सत्रह पृष्ठ के एक अलग आलेख में करते हैं, जिसमें अली अकबर खां जैसे शास्त्रीय संगीत की विभूति की भी चर्चा है, जिन्हें चेतन आनंद ने अपनी फिल्म ‘आंधियां’ में संगीत देने के लिए तैयार किया था, और सुधा मल्होत्रा की भी, जो मूलत: गायिका थी, लेकिन ‘दीदी’ के निर्माण के समय संगीतकार एन. दत्ता के बीमार पड़ जाने के कारण साहिर के एक गीत की धुन स्वयं बनायी थी। इसी आलेख में संगीतकार के रूप में मन्ना डे और मुकेश के योगदान के बारे में भी जानना दिलचस्प ही नहीं होता, लेखक के पूर्णता की हद तक पहुंचने की जिद भी प्रदर्शित करता है।
अपने शोध के प्रति पूरी गंभीरता रखते हुए भी पंकज राग ‘धुनों की यात्रा’ को महज एक शोध ग्रंथ नहीं बनने देते, यह उस वृहत ग्रंथ की सबसे बड़ी सफलता है। वास्तव में वे जब किसी संगीतकार की चर्चा करते हैं तो वहां शोधकर्त्ता की निरपेक्षता नहीं बल्कि मित्र की आत्मीयता झलकती है, रौशन को अंतर्मुखी और शान्त व्यक्तित्व का मालिक बताते हुए वे लिखते हैं, ‘‘दम्भ उनमें बिल्कुल भी नहीं था। किसी भी महफिल में हारमोनियम उठाकर किसी भी गायक का साथ दे देना उनके लिए आम बात थी। पर साथ ही निराशावादी विचार उनके अंदर हमेशा मंडराते रहते थे। आत्मविश्वास की कमी थी और यही कारण है कि यदि लोग उनके किसी धुन की तारीफ करते थे तो वे बेहद प्रसन्न हो जाते थे। रोशन में व्यावहारिकता भी नहीं थी - किसी के पास मांगने में वे कतराते थे।’’ किन्हीं के व्यक्तित्व को चित्रित करते हुए पंकज पाठकों के बीच से बिल्कुल हट जाना चाहते हैं और कोशिश करते हैं कि पाठक अभिष्ट व्यक्तित्व को गहनता से स्वयं रू-ब-रू हो।
‘व्यक्ति’ के साथ पाठकों की आत्मीयता स्थापित करने के की कोशिश में पंकज राग पाठकों को वह जानकारी भी देते हैं जिसे जानने की बहुत जरूरत तो नहीं होती, लेकिन उसे जानना दिलचस्प होता है। एस. डी. बर्मन की चर्चा करते हुए पंकज यह भी बताना जरूरी समझते हैं कि वे लता मंगेशकर की रिकार्डिंग से जब बहुत खुश हो जाते थे तो उसे पान पेश करते थे और यह भी कि जब लता ने ‘पग ठुमक चलत बलखाए’ की रिकार्डिंग दुबारा कराने से इन्कार कर दिया तो उन्होंने स्पष्ट कहलवाया, यदि लता को इस गीत की जरूरत नहीं तो उनको भी लता की जरूरत नहीं। पंकज आगे यह भी बताते हैं कि लता मंगेशकर और एस. डी. बर्मन के इस विवाद का फायदा आशा और गीता को मिला।
वास्तव में यही छोटी-छोटी बाते हैं जो पंकज राग की ‘धुनों की यात्रा’ को बोझिल होने से बचाती हैं। हालांकि उल्लेखनीय यह भी है कि इस तरह के क्षेपक हिन्दी फिल्म संगीत के इतिहास के सफर को कहीं भी दिक्भ्रमित नहीं करती। फस्तक की प्रस्तुति एक अलग चर्चा की मांग करती है। किंचित आश्चर्य होता है और पंकज के श्रम के प्रति सम्मान भी कि किस तरह उन्होंने ‘फ्रलाइंग प्रिंस’ और ‘डंका’ जैसे अचर्चित फिल्मों के पोस्टर और तलत महमूद अभिनीत फिल्मों के फोटोग्राफ जुटाए होंगे। ये तस्वीरें सिर्फ फिल्मों के दृश्य के लिए ही नहीं बल्कि उस काल की भाषा, लिपि, कला और छपार्इ की तकनीक की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हैं। चाहे सरोज मूवीटोन का ‘महान सामाजिक बोलपट’ के रूप में ‘चन्द्रा’ या ‘मॉडर्न गर्ल’ का विज्ञापन हो या ‘दिल की प्यास’ का पम्फलेट पर कज्जन की तस्वीर हो या प्रभात स्टुडियो में लगे ‘माया मछिन्द्र’ के सेट की सभी अपने आप में एक मुकम्मल इतिहास बयान करती लगती हैं। बेहतर होता यदि इतनी महत्वपूर्ण पुस्तक में प्रूफ की भी गलतियां नहीं होती, ‘अगर’ या ‘अलग’ जैसी गलतियां तो भूली भी जा सकती हैं, लेकिन मुश्किल हो जाती है जब लगातार दो पंक्तियों में एक में अभिनेता डब्ल्यू. एम. खान होते हैं दूसरे में डब्ल्यू. एस. खान। हिन्दी की तो ये स्थिति है कि पाठाकें के पास इस दुविधा से उबरने के लिए कोइ अन्य संदर्भ स्रोत भी नहीं।
‘धुनो की यात्रा’ संतोष देती है कि हिन्दी में साहित्येतर कलाविधाओं खासकर सिनेमा के प्रति गंभीर लेखकों के हिचक टूट रहे हैं। पंकज की यह कोशिश हिन्दी साहित्यकारों को यह अहसास कराने में सक्षम होती है कि कला की किसी बड़ी दुनियां से उन्होंने स्वयं को वंचित रखा है और अपने पाठकों को भी।

Tuesday, July 12, 2011

प्रसारण मीडिया का इतिहास और मुल्यांकन

पुस्तक      -    भारत में जनसंचार और प्रसारण मीडिया
लेखक      -    मधुकर लेले
मुल्य       -    तीन सौ रूपये
प्रकाशक    -    राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा. लि.
                दरियागंज, नइ दिल्ली-2

              जनसंचार के सूत्र उपनिषद से ग्रहण करते हुए मधुकर लेले लिखते हैं, ‘सबकी अंत: प्रेरणाए हृदय और मन में एकरूपता हो तभी समाज सुचारू रूप से चलेगा। इसके लिए जरूरी है कि व्यक्तियों के बीच संवाद, संचार, संप्रेषण अविरल चलता रहे’। जनसंचार शायद सभ्यता की अनिवार्यता रही है। या कह सकते हैं जनसंचार के विकास और सभ्यता के विस्तार में अन्योन्याश्रय संबंध रहे हैं। किसी किसी रूप में वह जनसंचार का ही एक रूप होगा जिसमें मानव को बाकी जीवों से अलग होने की प्रेरणा दी होगी। जनसंचार को विस्तार देते हुए लेले लिखते हैं, ‘वर्तमान सांस्कृतिक परिवेश में संचार शब्द को कर्इ अर्थों और संदर्भों में लिया जाता है। जिस किसी रूप में भावों का आदान-प्रदान हो, संवाद चले, चर्चा हो, चाहे वह प्रत्यक्ष हो, परोक्ष हो, सभा में हो, मेले में हो, लिखत हो या पढ़त में, बेतार के जरिए हो, जैसे फोन रेडियो, टी.वी., इंटरनेट सबकुछ संचार के दायरे में माना जाता है’।
              एक दशक से अधिक समय तक आकाशवाणी-दूरदर्शन के वरिष्ठ उप महानिदेशक के पद पर रहने का अनुभव मधुकर लेले की फस्तक ‘भारत में जनसंचार और प्रसारण मीडिया’ के हरेक पृष्ठ पर दिखता है। आरंभिक पृष्ठों पर ही महात्मा गांधी, पं. नेहरू, सरदार पटेल और इदिरा गांधी की आकाशवाणी-दूरदर्शन से जुड़ी तस्वीरें पुस्तक को एक दस्तावेजी महत्व देती हैं। जनसंचार और प्रसारण मीडिया नाम के अनुरूप ही लेले ने पुस्तक को दो खण्डों में विभाजित किया है, पहले खण्ड में जनसंचार सिद्धांत और माध्म का विवेचन है, दूसरे खण्ड प्रसारण मीडिया विमर्श में मूलत: भारत में टेलिविजन प्रसारण के विस्तार और उसके सामाजिक प्रभावों-सरोकारों की चर्चा की गई है।
                   जनसंचार सिद्धांत और माध्य का विवेचन करते हुए मधुकर लेले क्रमबद्ध ढंग से जनसंचार के सिद्धांत और उसके व्यवहारिक स्वरूप पर समय-समय पर हुए विमर्श को रेखांकित करते हैं। यह जानना वाकइ दिलचस्प लगता है कि आगामी खतरे को भांपते हुए 1974 में ही बोगोटा में हुए यूनेस्को के सम्मेलन में यह कहा गया था कि स्वतंत्र व्यवसाय के रूप में मीडिया के निजी स्वामित्व और प्रबंध को रोका जाय, क्योंकि इससे समाज में असंतुलन और विकास के बजाय उपभोग पर ध्या ज्यादा केन्द्रित होता जा रहा है। लेकिन यूनेस्को का प्रभाव 80 का दशक आते-आते तक पूर्णत: तिरोहित हो गया। डॉ. लेले मानते हैं कि वास्तव में संचार टेक्नोलोजी में इस दौर में जो अभूतपूर्व प्रगति हुइ उसने ‘विकास के लिए जनसंचार’ की समझ के स्थान पर उसे एक लाभकारी उद्योग के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया और अब उसे भूमंडलीकरण विस्तार के साथ जोड़ कर देखा जाने लगा है। इसके प्रभाव की चर्चा करते हुए लेले अपनी पुस्तक के दूसरे खण्ड में इंदिरा गांधी को उद्रित करते हैं, ‘मीडिया आज पूरे विश्व को एक साथ भौतिक समृद्धि के भड़कीले और लुभावने दृश्य दिखा रहा है जबकि दुनिया के अधिकांश लोगों को उनकी निहायत जरूरी चीजें भी नसीब नहीं हैं। लेले भले ही कुछ नहीं कहते, लेकिन यह टिप्पणी अपने आप में सवाल खड़े करती है कि आखिर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी यह किसे संबोधित कर रही थीं? और जब दूसरों को वे आहवान कर रही थीं तो आखिर खुद उनकी क्या भूमिका थी? सवाल यह भी है कि इंदिरा गांधी के नाम पर चल रही कांग्रेस आज उनकी वेदना को किस हद तक महसूस कर पा रही है? जनसंचार के बदलते स्वरूप को रेखांकित करते हुए लेले लिखते हैं, अब विज्ञापन का मुख्य उद्ददेश्य वस्तु की जानकारी से ज्यादा उसके लिए चाहत पैदा करना है। हालांकि अब इस बात को स्थापित करने के लिए किसी तर्क की जरूरत नहीं कि ‘विज्ञापनों में अतिरंजना’ और ‘नैतिकता के लिए कोर्इ खास गुंजाइश नहीं रही’ लेकिन लेले यहां मेरीलैण्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर बेंजामिन बी. बारबरा की पुस्तक का उल्लेख आवश्यक समझते हैं, जिसमें विस्तार से स्पष्ट किया गया है कि भूमंडलीकरण के दौर में विज्ञापनों के जरिए बाजार की शक्तियां बच्चों को भ्रष्ट और वयस्कों में बचकानी सोंच पैदा कर रही हैं। वाकइ इससे असहमत होने की कोइ गुंजाइश नहीं बनती जब लेले कुछ विज्ञापन निर्माताओं को उद्धृत करते हुए लिखते हैं कार्यक्रम तो बहाना है, दर्शक को आज उत्तेजना ;थ्रिल चाहिए और वो है विज्ञापनों के चटपटे और तेज स्वाद में।
              मधुकर लेले की धर्म, दर्शन और संस्कृति में रूचि फस्तक में मुखर होती दिखती है जब भारत में जनसंचार प्रणालियों की चर्चा करते हुए वेद से आरंभ करते हुए यह कहते हैं कि जनसंचार का पहला संगठित रूप फराणों के काल में ही दिखायी देने लगा था। इस संदर्भ में वे नारद मुनि के साथ महाभारत की युद्ध में संजय की दिव्य दृष्टि और अर्जून श्री कृष्ण संवाद का भी उल्लेख करते हैं। लेले चाणक्य के अर्थशास्त्र में जनसंचार के स्वरूप की तलाश करते हैं और नाटकों और उसके भाषायी बदलाव में भी। वे मानते हैं, आज जबकी टेक्नोलॉजी आधारित जनसंचार के अनेक प्रभावी माध्य लोकमानस पर अपना मजबूत पकड़ बना चुकें हैं, परम्परागत जनसंचार साधन फिर भी अपनी अहमियत रखते हैं। इसका आधार वे भारत की विविधता में तलाश करते हुए लिखते हैं, इसे स्वीकार्य किए बगैर भारत में कारगर रूप से जनसंचार नहीं हो सकता। आश्चर्य नहीं कि आंचलिक विशेषताओं का उपयोग आज जनसंचार की अनिवार्यता बन गइ है।
              मधुकर लेले जनसंचार माध्य के तकनीकी विकास पर श्रुति ;सुनी-सुनायी से शुरूआत करते हुए क्रमवार कागज पर छपायी, टेलीग्राफ, फोटोग्राफी, चलचित्र, रेडियो, टेलीविजन, उपग्रह से प्रसारण सेवा की चर्चा करते हुए भारत में इसके विकास की प्रक्रिया को खास तौर से रेखांकित करते हैं। 20 अगस्त 1921 के भारत में रेडियो के पहले प्रसारण से लेकर वाल्टर काउफमैन द्वारा वायलिन पर बनायी आकाशवाणी के सिग्नेचर ट्यून की जानकारी कई पाठकों के लिए नई हो सकती है। वे आकाशवाणी के कई कार्यक्रमों के बारे में जानकारी देते हैं, अच्छा लगता ‘आकाशवाणी’ से लेकर ‘विविध भारती’ और ‘अमृत वर्षिणी’ जैसे नामकरण की पूर्वपीठिका भी पाठकों को मिल पाती। आकाशवाणी के कार्यक्रमों के नामकरण में कायम शास्त्रीयता वाकइ उसकी धरोहर है।
              आकाशवाणी के साथ ही लेले दूरदर्शन के विकास की भी कहानी कहते हैं। इन सेवाओं से उनका व्यक्तिगत जुड़ाव रहा है। जाहिर है एक आत्मीयता भी दिखती है और तकनीकी जानकारियां देने में पूर्णता भी। लेकिन मीडिया के निजी हाथों में जाने की स्थिति के प्रति उनका असंतोष स्पष्ट दिखायी देता है। वे अपना निष्कर्ष देते हुए लिखते हैं, भारतीय मीडिया और खासकर प्रसारण मीडिया आज एक संक्रमण के दौर से गुजर रहा है। उसपर कर्इ तरह के दबाव हैं, जैसे राजनीतिक पक्षकारिता, लाभकारी उद्योग बनने की आकांक्षा, मीडिया में गलाकाटू प्रतिस्पर्द्धा और भूमंडलीकरण के प्रभाव में समाचारों की प्रस्तुति में आयी स्वछंदता। लेकिन उनके अनुभव उन्हें निरास नहीं होने देते। हालांकि जनसंचार की अपनी-अपनी परिभाषाए गढते विभिन्न प्रसारण माध्यमों की बाढ़ को झेल रहे दर्शकों के लिए उनकी उम्मीद से सहमत होना थोड़ा मुश्किल होता है कि वर्तमान दिशा भ्रम के इस दौर से मीडिया अपनी गौरवशाली परम्परा और स्वविवेक के सहारे खुद को शीध्र उबार लेगा। वास्तव में यह स्तक सिर्फ तथ्यात्मक जानकारी नहीं देती, जनसंचार के प्रसारण मीडिया को आत्मअवलोकन के लिए भी तैयार करती है। सबसे बढ़कर पाठकों को यह समझ देने की कोशिश करती है कि वे क्या देख रहे हैं और क्या उन्हें देखना चाहिए।