Friday, September 9, 2011

हिन्दी सिनेमा के सौंदर्यशास्त्र की तलाश



भारतीय सिने सिद्धांत
लेखक-अनुपम ओझा
राधाकृष्ण प्रकाशन,दिल्ली-5
मूल्य-295 रुपये

जनवरी 1935 के ‘विशाल भारत’ में बनारसी प्रसाद चतुर्वेदी ने सिनेमा की चर्चा करते हुए लिखा था, ‘हम उन कठमुल्लाओं के सख्त विरोधी हैं, जो सिनेमा मात्र को त्याज्य मान बैठे हैं, क्यों कि कठमुल्लापन स्वयं एक ऐसा व्यवसाय है, जो सिनेमा व्यवसाय से कम भयंकर नहीं।’ बाद में इन्हीं बातों को विस्तार देते हुए कमलेश्वर ने कहा, ‘सिनेमा की शक्ति को सब पहचानते हैं, परन्तु साहित्यिक अहंकार और संकुचित सोच के कारण, इस नये माध्यम को आत्मसात करने से घबराते हैं - वे ये भूल जाते हैं कि सम्यक्-सांस्कृतिक परिवर्तन के लिए शक्तिशाली माध्यमों की जरूरत होती है। जो इस क्षेत्र में आते हैं, वे अधिकाश गीत या संवाद लेखन के लिए आते हैं। वे सिनेमा या फिल्म की आन्तरिक तकनीकी रचनात्मकता को आत्मसात करने से कतराते हैं। सच तो यह है कि हमारे लेखक बहुत सुस्त, आराम पसंद और दकियानूसी हैं। उन्हें आप अच्छे सिनेमा की दुनिया तैयार करके दे दीजिए, तो वे खरामा-खरामा एहसान करते हुए चले आएंगे और यहां भी गोष्ठियों और विमोचनों की बीमार परम्परा शुरू करने में देर नहीं लगाएंगे - क्यों कि वे परम्परावाद के खिलाफ तो बोल सकते हैं, परन्तु परम्परा को बदलने में शामिल होने से कतराते हैं। यहां पर गोर्की का स्मरण स्वाभाविक है जिनकी समीक्षात्मक टिप्पणियां सिनेमा के इतिहास का महत्वपूर्ण दस्तावेज है। अंग्रेजी सिनेमा में तो ग्राहम ग्रीन, जार्ज बनार्ड शॉ, हेमिंग्वे, विलियम फॉकनर, आर्सन वेल्स, समरसेट मॉम जैसे महान लेखकों ने फिल्म लेखन में शामिल होकर रचनात्मक प्रोफेशनल लेखकों की एक संस्कारशील जमात खड़ी कर दी, जिसने पश्चिमी सिनेमा को सांस्कृतिक कथ्य और सार्थक प्रतिवाद का माध्यम बना दिया। इसके ठीक विपरीत हिन्दी साहित्य की यह विडम्बना रही कि सिनेमा ही नहीं, इसने अपनी कविता, कहानी, आलोचना के बाद कला जगत की सारी विधाओं को त्याज्य समझा, संगीत, नृत्य, चित्रकला.... यहां तक कि एक हद तक रंगमंच को भी। हिन्दी का रंगमंच जब ‘एक’ बेहतर नाटक के लिए बिसूरता दिखता है तो जाहिर है साहित्य के एजेंडे में रंगमंच है ही नहीं। निर्मल वर्मा जैसे लेखक हिन्दी साहित्य में आज विरले है जो स्वीकार कर सकते हैं कि उन्हें उर्जा तो साहित्येतर कला विधाओं से मिलती है। हिन्दी समाज को इसका दो तरफा घाटा उठाना पड़ा, एक तरफ साहित्य अपनी सीमा में सिकुड़ता, आने वाली नई चुनौतियों के सामने लाचार होता, हाशिये पर चला गया। दूसरी तरफ शेष कला विधाएं वैचारिकता के अनुशासन से मुक्त अराजक होती चली गई। ऐसे में डॉ. अनुपम ओझा की ‘भारतीय सिने सिद्धान्त’ को रचने या विकसित करने की कोशिश हिन्दी समाज की सांस्कृतिक शून्यता के प्रति चिंतनशील किसी भी व्यक्ति को संतोष दे सकती है। हालांकि डॉ. अनुपम ‘देहरी’ शीर्षक से लिखी भूमिका में ही अपनी सीमा स्पष्ट करते हैं, ‘यह किताब प्रश्नों और जिज्ञासाओं का संकलन है। इसमें निष्कर्ष की उम्मीदें हैं, उत्तर नहीं, जो उत्तर ढ़ूढ़ने के आग्राही हों उनका आह्वान किया जाता है कि वे हमकदम बनें।’ अन्यथा नहीं कि छ: अध्यायों में कला और सिनेमा पर गम्भीर विमर्श के बावजूद लेखक किसी निष्कर्ष पर पहुंचने की जिद नहीं करते। हां, विमर्श की जमीन उपलब्ध कराते हुए यह आशा अवश्य व्यक्त करते हैं कि दादा साहेब फाल्के ने बीसवीं सदी के आरम्भ में भारतीय सिनेमा को व्याकरण के सांचे में कसने के लिए जो सिने सिद्धान्त की आवश्यकता महसूस की थी, वह इक्कीसवी सदी के आरम्भ में शायद प्रतिपादित हो सके। ‘कला और सिनेमा : विकासात्मक अध्ययन’, विषय की पूर्व-पीठिका के रूप में देखा जा सकता है, जिसमें कला की विभिन्न अवधारणाओं के साथ चलचित्र के कि विकास को रेखांकित किया गया है। प्रस्तुत अध्याय में लेखक तत्कालीन प्रभावी कला माध्यमों लिपि, चित्रकला, रंगमंच, दृश्य काव्य और श्रव्य, पाठ्य काव्य इत्यादि में सिनेमा की जमीन ढ़ूंढ़ने की कोशिश करते हैं। सहज ही वे इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं, ‘सिनेमा ने पूर्ववर्ती सभी ललित कलाओं, उपयोगी कलाओं तथा कविता, नाटक, उपन्यास, कहानी आदि साहित्यिक विधाओं को अपने भीतर समाहित कर विज्ञान और व्यवसाय के समुचित सन्तुलन से अपना स्वरूप निर्मित किया।’ ‘रंगमंच और सिनेमा’ पर चर्चा करते हुए लेखक इसे रंगमंच से सर्वाधिक प्रभावित तो बताते हैं, लेकिन क्यों? इसकी गहनता में जाने की जरूरत नहीं समझते। भगवतशरण उपाध्याय जब कहते हैं कि नाटकों की सही परिपाटी भी प्रस्तुत न हुई थी कि सिनेमा ने उसपर छापा मार कर अधिकार कर लिया। सिनेमा ने संसार भर के रंगमंच पर अपना विस्तृत प्रभाव डाला था, परन्तु और देशों ने अपने नाटकीय साहित्य की सजीवता, अभिनय की प्रवीणता आदि से अपने रंगमंच की रक्षा कर ली पर हमारा उठता हुआ रंगमंच सहसा बैठ गया। यहां पर स्वाभाविक जिज्ञासा उठती है, क्या इसके लिए सिनेमा को दोषी करार दिया जा सकता है? दूसरे अध्याय ‘सिनेमा, कला सिनेमा : भेदपरक मूल्यांकन’ में एक नितान्त काल्पनिक आधार पर सिनेमा को वर्गीकृत करने की कोशिश में स्वाभाविक है लेखक का भटकाव दिखने लगता है। छ: पंक्ति पूर्व जहां इस वर्गीकरण की शुरूआत वे सत्तर से मानते हैं, वहीं तुरंत इसे साठ के दशक से स्थापित करने की कोशिश करते हैं। हिन्दी कला सिनेमा से पहले, लोकप्रिय सिनेमा और कला सिनेमा, सिने कला व्यवसाय, विज्ञान और फार्मूला, फार्मूला और पटकथा, कला भाषा और लोकप्रियता जैसे उपशीर्षकों के अंतर्गत विमर्शित विषय पर लेखक का पूर्वाग्रह स्पष्ट महसूस किया जा सकता है, इस खण्ड में वी. शान्ताराम, राज कपूर, गुरुदत्त, महबूब जैसे फिल्मकारों पर चर्चा वांछित थी, आखिर कौन से वर्गीकरण में रखी जायेगी इनकी फिल्में। विजय अग्रवाल जब कहते हैं, ‘कलात्मक फिल्मों का जन्म अपने समय की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक स्थितियों के गर्भ से हुआ है।’ तो बात मानी जा सकती है, लेकिन जब वे कहते हैं कि व्यवसायिक फिल्मों की चकाचौंध के बीच परिष्कृत रुचियों वाली फिल्में बनाने का साहस करना कम जोखिम भरा काम नहीं, तो बात समझ में नहीं आती। आखिर कितनी भी परिष्कृत फिल्में बनायी जाएं व्यवसाय तो उन्हें करना ही होगा। कला फिल्में जब आज दम तोड़ती दिख रही है तो उसका एक बड़ा कारण उनका व्यवसाय न कर पाना है। तदन्तर, दर्शकों के प्रति निरपेक्षता भी रही है। ‘ कला सिनेमा की विकास यात्रा’ शीर्षक से एक अलग अध्याय भी पुस्तक में संयोजित है। ‘भारतीय सिने सिद्धान्त’ की तलाश में लगा लेखक क्यों कला सिनेमा के सिद्धान्तों तक अपने आपको सीमित कर लेता है, यह विचारणीय है। लेखक इसे सत्तर के दशक में प्रस्फुटित एक विशेष सुनियोजित संरचना और आन्दोलन की उपज मानता है। लेखक के पूर्वाग्रह का आधार तब स्पष्ट होता है जब वे साहित्य को लोकप्रिय सस्ता साहित्य, लोकप्रिय कलात्मक साहित्य और जनपक्षधर शास्त्रीय साहित्य में वर्गीकृत करने की कोशिश करते हैं : ‘भाई मेरे, यह ‘जनपक्षधर’ शब्द बड़ा विकट है, इसने अज्ञेय और जैनेन्द्र कुमार तक को साहित्य से बेदखल करने की कोशिश की, निर्मल वर्मा को भी। वी. शान्ताराम की सिर्फ ‘डॉ. कोटनीस की अमर कहानी’ ही महान नहीं थी, ‘नवरंग’ भी महान थी। महबूब की ‘मदर इण्डिया’ महान थी तो के. आसिफ की ‘मुगले आजम’ भी। एक अध्याय ‘कला सिनेमा की कथा पटकथा : संरचनात्मक विशिष्टताएं’ पर केन्द्रित है। बेहतर होता यदि इसे इसके उपशीर्षक ‘हिन्दी सिनेमा में पटकथा’ पर ही केन्द्रित किया जा सकता। निश्चय ही पटकथा किसी भी फिल्म का आधार होती है, कई वरिष्ठ फिल्मकार मानते है आधी फिल्म तो टेबुल पर ही बनती है। बावजूद इसके यह भी सच्चार्इ है हिन्दी सिनेमा का सबसे हीन प्राणी पटकथा लेखक है। प्रस्तुत अध्याय में पटकथा लेखक के शिल्प, फिल्म निरूपण, सिने कथा और पटकथा के लिए किये जाने वाले रचनात्मक समझौते पर भी विमर्श है। इस अध्याय में कई सैद्धान्तिक तथा तकनीकी जानकारियां भी उपलब्ध करायी गयी है। जिसमें शॉट, सीन और सिक्वेन्स के मिलने से पटकथा बनती है, जैसी जरूरी जानकारी भी है और पटकथा अकसर लम्बे पन्नों या जिल्द पन्नों पर लिखी जाती है, जैसी गैर जरूरी जानकारी भी। ‘सिनेमा-समीक्षा, कला सिनेमा और उसकी जरूरत’ पर केन्द्रित अध्याय में मुख्य रूप से हिन्दी में सिने पत्रकारिता की स्थिति पर चर्चा की गर्इ है। समृद्ध अतीत के बावजूद दरिद्र वर्तमान सिनेमा विद्या के प्रति हमारे नकारात्मक सोंच को ही प्रदर्शित करता है। यह जानकर सुखद आश्चर्य होता है किसी समय प्रेमचंद, महादेवी वर्मा, वृंदावनलाल वर्मा, भगवतीचरण वर्मा, अज्ञेय जैसे साहित्यकारों ने सिनेमा पर हस्तक्षेप करने की जरूरत महसूस की थी, आज हम बात करने तक की जरूरत महसूस नहीं करते। ‘पटकथा’ के बंद होने के बाद ‘कथाचित्र‘ सामने आता है तो संतोष होता है, लेकिन इस अहसास के साथ करोड़ों हिन्दी भाषियों की जरूरत को किस हद तक पूरा कर सकेगा यह। डॉ. ओझा की इस सलाह से कोई भी सहमत होना चाहेगा कि ‘फिल्म विकास निगम’ या फिर ‘फिल्म समारोह निदेशालय’ को ही हिन्दी में फिल्म पर एक स्तरीय पत्रिका निकालने का दायित्व संभालना चाहिए। पुस्तक के समापन अध्याय में एक ‘भारतीय सिने सिद्धांत’ अनुसंधान की कोशिश की गई है। वाकई एक ऐसी विद्या के लिए सिद्धांत की संरचना एक कठिन कार्य है जो शमा जैदी के अनुसार, ‘जिस भाषा में है उस भाषा की है ही नहीं।’ वाकइ यह जानकारी कई लोगों को विस्मित कर सकती है कि हिन्दी कला सिनेमा की पटकथा अमूमन रोमन में लिखी जाती है। सत्यजीत राय (शतरंज के खिलाड़ी), मणि रत्नम (दिल से) जैसे अहिन्दी भाषी फिल्मकार जब रोमन में लिखी पटकथा का सहारा लेते हैं तब तो यह सह्य लगता है, लेकिन जब साहित्यकार के रूप में भी प्रतिष्ठित जावेद अख्तर कहते हैं, ‘मैं गांवों में कभी नहीं रहा और सच्चाई यही है कि मैंने कभी हिन्दी नहीं पढ़ी। मैं हिन्दी लिख भी नहीं सकता’ तो हिन्दी सिनेमा के प्रति फिल्मकारों की इमानदारी पर संदेह स्वाभाविक है। डॉ. अनुपम इस अध्याय में एक जरूरी सवाल उठाते हैं, ‘हिन्दी में बनी हिन्दी जमीन की फिल्में कितनी हैं। बासु भट्टाचार्या, श्याम बेनेगल, सईद मिर्जा, गोविन्द निहलाणी की कला फिल्मों की भाषा तो हिन्दी है किन्तु क्या चरित्र और वातावरण भी हिन्दी प्रदेश के हैं? यहां अडूर गोपालकृष्णन की टिप्पणी गौरतलब है, ‘भाषा के साथ संस्कृति का अटूट सम्बन्ध है, और उसमें रद्दोबदल करके फिल्म की विश्वसनीयता पर आंच नहीं आने देना चाहिए।’ इसके ठीक विपरीत हिन्दी सिनेमा में भाषा तो होती है, संस्कृति कहीं नहीं होती। इसका क्या कारण हो सकता है। तमाम उदाहरणों के बावजूद लेखक इसे स्पष्ट नहीं कर पाये। निश्चय ही डॉ. अनुपम ओझा की तरह हमें भी हिन्दी सिनेमा के लिए किसी पाणिनी, किसी भरत का इन्तजार रहेगा। लेकिन 230 पृष्ठों में फैली इस पुस्तक से गुजरने के बावजूद पाठक के मन में यह सवाल कायम रह जाता है कि आखिर हिन्दी सिनेमा का विकास हिन्दी जमीन पर क्यों न हो सका? मराठी भाषी क्षेत्र सुदूर महाराष्ट्र में इसके विकसित होने की क्या वजह थी? डॉ. शुरू से अंत तक लेखक की कोशिश तो ‘हिन्दी’ सिनेमा के लिए सिने सिद्धांत ढ़ूंढ़ने की होती है, फिर ‘भारतीय सिने सिद्धांत’ क्यों? जो भी हो? उम्मीद की जा सकती है कि अनुपम की पहल हिन्दी साहित्य में सिनेमा पर कायम हिचक को दूर करने में सक्षम होगी। (पुस्तक वार्ता के अंक मई-जून 2003 में प्रकाशित)